Thursday 30 August 2018

बड़े भुलक्कड़ दादा जी


बिन्नू के दादा जी को भूलने की बड़ी बीमारी है। दादी उनसे सेब लाने को कहती हैं और वे संतरे ले आते हैं। दादी टोकती हैं तो हँसकर कहते हैं-‘‘इस बार संतरों से काम चला लो, सेब अगली बार ला दूँगा।
---और जब अगली बार जाते हैं तो अमरूद उठा लाते हैं।
उनकी इस आदत से परेशान होकर दादी ने एक उपाय ढूँढा है। जब वह उन्हें बाज़ार भेजती हैं तो डायरी में सारा सामान लिख देती हैं। दादा जी जो सामान ख़रीदते हैं, उस पर निशान लगा लेते हैं।
एक दिन बिन्नू ने दादा जी से कहा, ‘‘दादा जी, मुझे कॉपी और पेंसिल चाहिए। क्या आप मेरे साथ बाज़ार चलेंगे?’’

दादा जी को घूमने में बड़ा मज़ा आता है। वह फौरन तैयार हो गए।
लेकिन गेट तक पहुँचते-पहुँचते वह ठहर गए। उन्होंने कहा, ‘‘मैं जल्दबाज़ी में चप्पल पहनकर निकल आया। तुम यहीं रुको मैं जूते पहनकर आता हूँ।’’
यह कहकर दादा जी अंदर चले गए। पर जब उन्हें काफी देर हो गई तो बिन्नू ने आवाज़ लगाई, ‘‘दादा जी, क्या मैं आकर कुछ मदद करुँ?’’
अंदर से दादा जी की परेशान-सी आवाज़ आई, ‘‘नहीं ऐसी तो कोई ज़रूरत नहीं, पर मैं यह भूल गया कि कमरे में क्या ढूँढने आया था?’’
बिन्नू हँस पड़ा। उसने जाकर दादा जी को जूते पहनाए और साथ लेकर चल पड़ा।
लेकिन गेट तक पहुँचकर दादा जी फिर ठिठक गए।
‘‘अब क्या हुआ?’’ बिन्नू ने पूछा।
‘‘जूते तो पहन लिए, पर अपना चश्मा वहीं रख आया।’’
दादा जी दोबारा अंदर चले गए। बिन्नू ने उबासी लेकर सोचा, अब फिर से पंद्रह मिनट लग जाएँगे।
पर दादा जी ने ज़्यादा देर नहीं लगाई। वे लौट आए। आँखों पर चश्मा चढ़ाए हुए। बिन्नू ख़ुश हो गया।
पर दादा जी संतुष्ट नहीं दिख रहे थे। वह अब भी किसी चिंता में थे।
‘‘चश्मा तो मिल गया न?’’ बिन्नू ने पूछा।
‘‘हाँ, चश्मा तो ले लिया, पर लग रहा है अब भी कुछ छूट रहा है।’’
‘‘ओह--हो, मैं बताता हूँ, आप क्या भूल रहे हैं,’’ बिन्नू हँसकर बोला, ‘‘आपने छड़ी कमरे में ही छोड़ दी है।’’
‘‘हाँ--हाँ, तभी तो कहूँ कि मुझे चलने में परेशानी क्यों हो रही है,’’ दादा जी पोपले मुँह से हँसते हुए बोले।
दादा जी ने लौटकर छड़ी ली और चल पड़े। पर अभी दो क़दम भी नहीं चले होंगे कि उन्हें फिर कुछ याद आया।
‘‘अब क्या--?’’ बिन्नू ऊबकर बोला।
‘‘अरे पेन और डायरी तो ले लूँ। तुम्हारी दादी ने जो सामान मँगाया है वह भी लेता आऊँगा।’’
दादा जी अपने कमरे में फिर लौट गए। बिन्नू गेट पर खड़ा होकर आने-जानेवालों को देखने लगा। तभी उसका दोस्त सलीम उधर आ निकला। उसके पास रिमोट से चलनेवाली कार थी। उसके अंकल आज ही दिल्ली से लेकर आए थे।
दोनों लॉन में बैठकर खेलने लगे। रिमोट के बटन दबाने पर कार जूँ-जूँकरके भागती और टकराने पर ख़ुद अपना रास्ता बदल देती। यह देखकर दोनों को बड़ा मज़ा आ रहा था। खेलते-खेलते उन्हें काफी देर हो गई।
तभी दादा जी हड़बड़ाए हुए बाहर आए और बोले, ‘‘मुझे पेन और डायरी मिल गई। चलो, बाज़ार चलते हैं।’’
बिन्नू तो बाज़ार जाने की बात भूल ही गया था। उसने सलीम से विदा ली और दादा जी के साथ चल पड़ा।
बाज़ार में ख़ूब चहल-पहल़ थी। लोग ख़रीदारी करने में जुटे हुए थे। वे एक-दूसरे से बेख़बर इधर-उधर आ-जा रहे थे। जैसे उन्हें किसी की फिक्र न हो।
दादा जी ने एक दूकान पर पहुँचकर बिन्नू के लिए कॉपी-पेंसिल और इरेज़र ख़रीदा। अपने लिए एक पेन और गुटका रामायण ली। पर जब पैसे देने की बारी आई तो वे किसी सोच में पड़ गए।
‘‘अब क्या हुआ?’’ बिन्नू ने पूछा।
‘‘बटुआ तो घर ही भूल आया--’’
बिन्नू ज़ोर से हँस पड़ा। उसके साथ दादा जी भी हँस पड़े।
 बिन्नू गाने लगा-
अक्कड़-बक्कड़ बड़े भुलक्कड़
मेरे  प्यारे   दादा  जी,
हमको  टॉफी  दिलवाने  का
रखते याद न वादा जी।
लेने  जाते  हैं  जब  सब्ज़ी
ले आते  हैं  दही-बड़े,
छड़ी  सुलाते  हैं बिस्तर पर
ख़ुद सो जाते खड़े-खड़े।


No comments:

Post a Comment