Friday 25 October 2019

रानी दुर्गावती


         
(गोंडवाना की महारानी दुर्गावती के उद्यान का दृश्य। महारानी एक सुंदर सरोवर के निकट अन्यमनस्क-सी बैठी हुई हैं। पीछे एक दासी खड़ी है। नेपथ्य से गीत-संगीत और उल्लास की ध्वनियाँ आ रही हैं।)
दासी    :    अपराध क्षमा करें, महारानी। एक प्रश्न पूछ सकती हूँ?

दुर्गावती  :    (सरोवर की ओर ही दृष्टि किए हुए कुछ देर बाद) हूँ...दासी, तुमने कुछ कहा?

दासी    :    महारानी जी, आज सारा राज्य विजय-पर्व मना रहा है। माण्डवगढ़ के शासक बाजबहादुर के पराजित होने की ख़ुशी में सब उल्लास में डूबे हुए हैं। ये धरती, ये आकाश और सारी प्रकृति भी जैसे ख़ुशियाँ मना रही है। ज़रा देखिए तो, उद्यान के फूल मंद पवन से कैसी अठखेलियाँ कर रहे हैं। सुंदर पक्षी कैसे मगन हैं। पेड़-पौधे भी किस तरह हवा में झूम-झूमकर एक-दूसरे को बधाइयाँ दे रहे हैं। किंतु महारानी...(कहते-कहते चुप हो जाती है)

दुर्गावती :     (उदासी से हँसकर) किंतु क्या दासी..? तू यही कहना चाहती है न कि एक मैं ही हूँ जो उत्सव छोड़कर विराग-भाव से यहाँ बैठी हुई हूँ।

दासी    :     (सिर झुकाकर) जी, आप महारानी हैं, दासी का हृदय आपसे छिपा नहीं है।

दुर्गावती :     (स्वर उदासी से भीगा हुआ है) दासी..अगर आज महाराज जीवित होते तो...

दासी    :     गोंडवाना के महान राजा दलपति शाह हमारी स्मृतियों में सदैव जीवित रहेंगे, महारानी।

दुर्गावती :     (अपने आप में खोई हुई) पहली बार मनिया के मेले में महाराज से भेंट हुई थी। आह, वह रूप आज भी स्मृतियों में बसा हुआ है। पहली ही भेंट में लगा कि हम एक-दूसरे को बरसों से जानते हैं। महाराज ने विंध्याचल के वनों में शिकार खेलने का प्रस्ताव रखा। मैं अपने वश में कहाँ थी जो अस्वीकार कर पाती? सघन वन में घोड़े दौड़ातेएक-दूसरे से होड़ करते जाने कितने आगे निकल गए। अंगरक्षक पीछे छूट गए। किंतु फिर भी हम आगे बढ़ते रहे। मैंने अपने अचूक वार से एक शेरनी को मार गिराया। पर उसे मृत जानकर ज्योंही निकट पहुँची कि पहले से घात लगाए सिंह ने मुझ पर  आक्रमण कर दिया। इससे पहले कि मैं कुछ सोच पाती महाराज की तलवार ने उसका सिर धड से अलग कर दिया। उन्होंने मेरे प्राणों की रक्षा की। पर आह...! मेरे प्राण आज तुम कहाँ चले गए? देखो, तुम्हारी दुर्गावती पर फिर शत्रुओं की दृष्टि लगी हुई है। क्या आज उसकी प्राण-रक्षा के लिए नहीं आओगे? (हथेलियों में चेहरा छिपा लेती है)

(तभी एक अन्य दासी का प्रवेश)

दासी    :  एकांत में विघ्न डालने हेतु दासी क्षमा चाहती है, महारानी। सेनापति जी अत्यंत आवश्यक कार्य हेतु आपसे भेंट करना चाहते हैं।

दुर्गावती :     (संयत होते हुए) सेनापति..? इस समय...यहाँ? ठीक है, भेज दो।

(सेनापति का प्रवेश। उसके चेहरे पर चिंता के भाव हैं।)

सेनापति :     महारानी की जय हो।

दुर्गावती :     आइए सेनापति जी, अच्छा हुआ जो आप आ गए। मैं आपको स्वयं बुलवानेवाली थी। विजय-पर्व में आपको सम्मिलित न हुआ जानकर मुझे चिंता थी।

सेनापति :     इस कृपा-दृष्टि के लिए सेवक नत मस्तक है, महारानी। मैं नगर में घूमकर सैन्य-प्रबंध देख रहा था।

दुर्गावती :     (चौंककर) सैन्य-प्रबंध? इसकी क्या आवश्यकता आ पड़ी?

सेनापति :     महारानी जी, शत्रु ऐसे ही अवसरों पर असावधानी का लाभ उठाने के प्रयास में रहते हैं। अभी-अभी सूचना मिली है कि सीमा-प्रांत पर मुग़ल सैनिकों के एक दल ने प्रवेश करके लूट-पाट मचानी आरंभ कर दी है।

दुर्गावती :     (चौंककर) क्या...?

सेनापति :     हाँ, महारानी जी, मांडवगढ़ के शासक बाज बहादुर पर सम्राट अकबर की विशेष कृपा- दृष्टि है। उनकी पराजय से वे निश्चय ही आहत हुए होंगे। हो सकता है कि यह उसी की प्रतिक्रिया हो।

दुर्गावती :     (क्रोध से) तो उन्हें इस करतूत का फल चखाइए, सेनापति जी। ताकि याद रहे कि बिना कारण गोंडवाना के वीरों को छेड़ने का परिणाम क्या होता है।

(सेनापति असमंजस में चुपचाप खड़ा रहता है।)

दुर्गावती :     क्या हुआ सेनापति? मैं देखती हूँ कि आपके मन में कुछ शंका है।

सेनापति :     मुग़ल सैनिकों को छेड़ने का सीधा मतलब सम्राट अकबर को युद्ध के लिए ललकारना  है। उनकी दृष्टि बहुत समय से हमारी ख़ुशहाली पर है। आपके कुशल शासन में सारा राज्य प्रसन्न है। दुख-दारिद्र्य का चिह्न तक नहीं है। हमारी ख़ुशहाली मुग़ल सम्राट की आँखों में गड़ती है। वह बहाने की तलाश में हैं कि हस्तक्षेप कर सकें।

दुर्गावती :     तो क्या हम उनकी शक्ति से डरकर बैठ रहें और अपनी स्वतंत्रता में उन्हें हस्तक्षेप    करने दें? याद रखिए सेनापति जी, संसार में स्वतंत्रता और आत्म-सम्मान से बढ़कर कुछ भी नहीं होता। इससे हीन मनुष्य मृतक के समान होता है।

सेनापति :     (सिर झुकाकर) क्षमा करें महारानी। क्षण भर के लिए मैं अपना कर्तव्य भूल गया था।
(जाता है।)

दूसरा दृश्य
(महारानी दुर्गावती अपने महिला अंगरक्षकों के साथ सैनिक वेश-भूषा में खड़ी हैं। चेहरे पर हड़बड़ाहट और बेचैनी के भाव हैं। पास ही सेनापति इस प्रकार खड़ा हुआ है, मानो उनके आदेश की प्रतीक्षा कर रहा हो।)
दुर्गावती :     विख्यात न्यायी, मानवतावादी और विश्व-शांति का समर्थक महान मुग़ल सम्राट अकबर! (व्यंग्य से हँसती है) एक छोटे से राज्य का आत्म सम्मान उनकी आँखों में ऐसा चुभा कि क्रूर सेनापति आसफ़ ख़ाँ के नेतृत्व में इतनी विशाल सेना भेज दी? अपने झूठे अहं को तुष्ट करने की ऐसी व्याकुलता? पर हम भी गोंडवाना की धरती पर जन्म लेनेवाले वीर हैं। हमने हँसते-हँसते सिर कटाना सीखा है, सिर झुकाना नहीं। संख्या बल में हम भले ही कम हों, पर हमारा आत्म बल बड़े-बड़ों का सिर झुकाने की ताक़त रखता है। युद्ध से वे डरें जों कायर हैं, हवा के झोंके से भी जिनके हृदय पत्ते की तरह काँपते हैं। युद्ध तो वीरों का उत्सव है। तलवारों की खनक और धनुष की टंकार हमें संजीवनी प्रदानकरती है। आज सारे गोंडवाना को बता दो कि केसरिया बाना पहनकर रणभूमि में उतरने का पर्व आ गया है।

(तभी एक सैनिक भागता हुआ आता है। वह घायल है। शरीर से रक्त की बूँदें टपक रही हैं। तलवार खंडित है। वेश-भूषा अस्त-व्यस्त है।)

सैनिक  :     (कराहता हुआ) महारानी...की जय...हो।

दुर्गावती :     (व्याकुलता से) यह क्या सैनिक? गोंडवाने के वीर की यह दशा?

सैनिक  :     महारानी जी, विशाल मुग़ल सेना नगर में टिड्डी-दल की तरह घुस आई है। गोंडवाना की धरती उनके पैरों तले कुचली जा रही है। घरों को आग के हवाले कर दिया गया है। महिलाओं, बच्चों और वृद्धों के क्रंदन से आकाश गूँज रहा है। हमारे सैनिक साहस के साथ उनका सामना कर रहे हैं। एक-एक वीर दस-दस पर भारी पड़ रहा है। पर जाने कैसे रक्तबीज की तरह उनकी सेना बढ़ी चली जा रही है। लगता है हम ज़्यादा देर तक उनका सामना नहीं कर पाएँगे।(अचेत होकर गिर जाता है)

सेनापति :     महारानी जी, आज्ञा प्रदान कीजिए। रणभूमि मेरी प्रतीक्षा कर रही है। देश के लिए बलिदान होने का सौभाग्य आ गया है। मातृभूमि मुझे पुकार रही है। (जाता है)

दुर्गावती :     (व्यथित होकर)आह, गोंडवाना तेरे भाग्य में यही लिखा था? हम अपने शीश बिछाकर तुझे ऐसे ढँक लेंगे कि शत्रु के अपवित्र चरण तेरा स्पर्श भी न कर सकें। हमारा रोम-रोम तेरी रक्षा में समर्पित है।

(नेपथ्य से कोलाहल का स्वर उभरता है)

अंगरक्षिका 1: महारानी, यहाँ अधिक समय तक आपका ठहरना उचित नहीं। आपको यहाँ से शीघ्र ही किसी सुरक्षित स्थान पर निकल चलना चाहिए।

अंगरक्षिका 2:  हाँ, महारानी जी, सूचना मिली है कि मुग़ल सेनापति ने सिंगोरगढ़ के िक़ले को चारों तरफ से घेर लिया है। छल और बल के सहारे वह हर मोर्चे पर हमारी सेनाओं को परास्त  करता हुआ आगे बढ़ रहा है। हमारे सैनिक मुग़लों की विशाल सेना देखकर उनका मनोबल कमज़ोर पड़ गया है। अगर हम शीघ्र ही यहाँ से न निकले तो संकट में पड़ सकते हैं।

अंगरक्षिका 1: सत्य है महारानी जी, गुप्तचरों से सूचना मिली है कि मुग़ल सेनापति ने आपको जीवित पकड़ने की घोषणा की है।

दुर्गावती :     (क्रोध से काँपकर) उसका इतना साहस...!

(तभी सेनापति घबराया हुआ प्रवेश करता है।)

सेनापति :     महारानी जी, शीघ्र ही गुप्त द्वार से सुरक्षित स्थान पर निकल चलिए। शत्रुओं की सेना ने दुर्ग-द्वार में प्रवेश कर लिया है। उनकी विशाल संख्या देखकर लगता है कि हम ज़्यादा देर तक उनका सामना नहीं कर पाएँगे।

दुर्गावती :     (क्रोध से) आपने यह कायरोंवाली बातें कब से सीख लीं, सेनापति? आपको नहीं पता कि गोंडवाना का वीर युद्धभूमि से तभी टलता है, जब उसका सिर देह पर नहीं रहता?

सेनापति :     आप हमारी बातों का ग़लत अर्थ न लें, महारानी। समय की यही माँग है कि हम पीछे  हट कर फिर से अपनी शक्ति संगठित करने का प्रयास करें। सिंह जब अपना शरीर सिकोड़कर पीछे हटता है तो भागने के लिए नहीं, बल्कि और भी लंबी और समर्थ छलाँग लगाने के लिए।

दुर्गावती :     (सोचते हुए) सही कहते हैं, सेनापति। बिखरी हुई सेनाओं को बिछिया की घाटी में एकत्र करिए। इस बार आर-पार का निर्णायक युद्ध करेंगे। अब या तो विजय हमें गले लगाएगी, या वीरगति ही अपने अंक में विश्राम कराएगी।

(सब जाते हैं)

(नेपथ्य से कोलाहल की ध्वनि आ रही है। तलवारें खनक रही हैं। सैनिकों की चीख़-पुकारों से वातावरण गूँज रहा है। तभी मुग़ल सेनापति आसफ़ ख़ाँ हाथ में नंगी तलवार लिए दो  सैनिकों के साथ प्रवेश करता है।)

आसफ़ खाँ:     (अट्टहास करते हुए)हा...हा...हा...देख लिया अंजाम, हमारी ताक़त से टकराने का? हमारी हिम्मत और मर्दानगी से पूरी दुनिया थरथराती है, इस अदना-सी रियासत की क्या मजाल? मच्छर की तरह मसलकर रख दिया। अब सिंगोरगढ़ का क़िला हमारे क़ब्ज़े में है।                   
पहला सिपाहीः  हुज़ूर, माफ़ करें, हमने पूरा पहाड़ खोद डाला, पर चुहिया तो दूर, एक मच्छर भी हाथ नहीं लगा।

दूसरा सिपाहीः  हुज़ूर, यहाँ आपका हुक्म बजा लाने के लिए बस, ईंट और पत्थर ही बचे हैं।

पहला सिपाहीः  हाँ, हुज़ूर, रानी साहिबा तो हाथ लगी नहीं।

आसफ़ ख़ाँ:     चुप रहो बेवकूफ़ों, हमने एलान कर दिया है कि जो भी रानी दुर्गावती को ज़िंदा पकड़कर लाएगा, उसे मुँहमाँगा इनाम दिया जाएगा।

पहला सिपाहीः  हुज़ूर हमने तो सुना है कि रानी परी सूरत है।

दूसरा सिपाहीः  हाँ, सरकार, कहते हैं उसकी रंगत के आगे चाँद की रोशनी फ़ीकी पड़ती है।

आसफ़ ख़ाँ :    हाँ, मैंने भी ऐसा ही सुना है। इसीलिए तो ज़िंदा पकड़ने की ठानी है। महारानी को बादशाह सलामत की खिदमत में पेश करूँगा तो वे ख़ुश हो जाएँगे। उनकी निगाहों में मेरी क़द्र बढ़ जाएगी।

(तभी नेपथ्य में होते कोलाहल का स्वर बढ़ जाता है। मरने न पाए’, ‘ज़िंदा पकड़ लोकी आवाज़ें उभरती हैं।)

आसफ़ ख़ाँ:     (चौंककर) लगता है सिपाहियों ने महारानी को घेर लिया है। जल्दी चलो।

पहला सिपाहीः  हाँ, हुज़ूर, जल्दी चलिए।

दूसरा सिपाहीः  जी हुज़ूर, देर न करिए।

(सब जाते हैं। दूसरी ओर रानी का प्रवेश। उसकी वेश-भूषा छिन्न-भिन्न हो गई है। बड़े-बड़े बाल चेहरे और पीठ पर फैल गए हैं। कंधे पर एक तीर चुभा हुआ है। जगह-जगह से रक्त बह रहा है। वह कराहते हुए खड़े होने का प्रयत्न करती है पर क़दम लड़खड़ा रहे हैं।)

दुर्गावती :     आह, मेरी मातृभूमि...! मैं कितनी अभागी हूँ कि शत्रुओं से तेरी रक्षा न कर सकी। हमारे वीरों ने अपनी पूरी शक्ति झोंक दी। शत्रुओं के नरमुंडों से मैदान ढँक गया। लेकिन भाग्य को यही स्वीकार था कि हम अपने शीश कटाकर तेरी वेदी पर बलिदान हो जाएँ और आने वाली पीढ़ियों के लिए देशभक्ति और वीरता की जलती मशाल बनकर सदा के लिए अंधेरे पथ को प्रशस्त करते रहें।

(नेपथ्य से आसफ़ ख़ाँ की आवाज़ आती है--ज़िंदा क़ैद कर लो रानी को!’ ‘घेर लो रानी  को!’)

दुर्गावाती :     (पीड़ा भरी हँसी हँसती है) ज़िंदा पकड़ लो...? आसफ़ ख़ाँ तेरे दिल की यह साध दिल में ही दफ़न रह जाएगी। जीते जी पकड़ना तो दूर, मुझे छू भी न सकेगा। (वस्त्रों में छिपी हुई कटार निकालती है) क्षमा करना मेरे देश, मेरी मातृभूमि...(कटार अपनी छाती में उतार लेती है)

(आसफ़ ख़ाँ सैनिकों के साथ दौड़ता आता है।)

आसफ़ ख़ाँ:     यह क्या हो गया...? मैं तो जीतकर भी हार गया। (रानी की लाश के पास जाकर बैठता है। कुछ क्षणों बाद) मैंने बड़ी-बड़ी लड़ाइयाँ लड़ी हैं। मेरी ज़िंदगी जंग के मैदान में बीती है। मेरी तलवार ने न जाने कितने सिरों को धड़ से जुदा किया है। ख़ून की नदियाँ बहाई हैं। लेकिन ऐसा कभी न हुआ कि मेरा दिल ज़रा-सा भी लरज़ा हो। आँखों में पछतावे की एक बूँद तक छलकी हो। पर आज न जाने क्यों मेरा दिल इस मौत पर दहाड़ें मारकर रोना चाहता है। आँखें बरसने को बेचैन हैं। लगता है मैं जीतकर भी हार गया--इस जिंदगी की सबसे बड़ी हार। रानी...मैं तुम्हारा गुनहगार हूँ। हो सके तो मुझे माफ़ करना। (अपनी ढाल और तलवार नीचे रखकर धीरे-धीरे पीछे हट आता है।)
       
                                      पर्दा गिरता है।