‘‘मैं तो लेटे-लेटे बोर हो गया हूँ। लेटे-लेटे सोना-जागना, लेटे-लेटे खाना-पीना, लेटे-लेटे ही चलना। काश मेरे भी पैर होते।’’ साँप ने आह भरते हुए कहा।
साँप की बात पर सारे जानवरों ने ‘हाँ’ में ‘हाँ’ मिलाई। पर
घोड़ा चुपचाप खड़ा रहा। बंदर ने पूछा, ‘‘तुम क्यों चुप हो?’’
घोड़ा बोला, ‘‘सच
तो यह है कि मैं तो खड़े-खड़े बोर हो गया हूँ। इक्के में जुतकर दिन भर दौड़ते-दौड़ते
थक जाता हूँ। मन होता है काश, मैं
भी लेट सकता। पर क्या करूँ? प्रकृति ने
मुझे ऐसा बनाया कि खड़े-खड़े ही सोना पड़ता है।’’
तभी वहाँ एक बगुला आकर बैठ गया। वह बहुत उदास था। उसका
चेहरा उतरा हुआ था। सबने पूछा तो कहने लगा, ‘‘काश, मेरे भी दो
हाथ होते!’’
‘‘पर तुम ऐसा क्यों कह रहे हो?’’ भालू ने पूछा।
‘‘मैं सुबह से ताक लगाए एक पैर पर खड़ा था। बड़ी मुश्किल से एक
मछली हाथ लगी। मछली बड़ी थी। वह मेरी चोंच से छिटककर भाग गई। अगर हाथ होते तो उसे
कसकर दबोच लेता।’’
‘‘काश, मेरे पंख होते,’’ तभी बिल्ली बोली, ‘‘कल एक बंद गली में शरारती बच्चों ने मुझे घेर लिया। और दौड़-दौड़ाकर बेहाल कर दिया। अगर पंख होते तो फुर्र हो जाती।’’
तभी बड़ी देर से सबकी बात सुन रहा कबूतर बोला, ‘‘मैं सोचता हूँ कि मेरे भी दाँत होते। हमें तो खाने का कोई
स्वाद ही नहीं मिलता। जो मिला गटक गए।’’
कबूतर की बात पर कोई कुछ कहता कि मगरमच्छ बोल उठा, ‘‘मैं तो अपने टेढ़े-मेढ़े दाँतों से परेशान हूँ। दाँतों में
अक्सर माँस के टुकड़े फँस जाते हैं। तब हमें चिड़ियों के भरोसे रहना पड़ता है। घंटों
जलती रेत पर मुँह खोले पड़े रहो। तब कहीं कोई चिड़िया आकर दाँतों की सफाई करती है।’’
तभी कछुआ बोला, ‘‘दोस्तो, मेरे
हाल न पूछो। काश, मैं भी
खरगोश की तरह तेज़ रफ्तार चल पाता।’’
कछुए की बात पूरी होते-होते खरगोश हँस पड़ा। वह बोला, ‘‘लेकिन कछुए भाई, अपनी धीमी चाल से ही तुमने हमारे परदादा के परदादा को हरा
दिया था।’’
लेकिन हाथी अपने आप में मस्त था। उसने कहा, ‘‘चाहता तो मैं भी हूँ कि कंगारू की तरह उछल सकूँ। पर उछल
नहीं सकता तो नाच तो सकता हूँ।’’ यह
कहकर वह सूँड उठाकर ‘धम-धम’ करके नाचने लगा।
उसे नाचता देख बाकी सब भी नाचने लगे।