उस छोटे-से पहाड़ी गाँव में जीवन अभी पूरी तरह जागा नहीं था। जाड़े की सुबह थी। हल्का-हल्का उजास फूट रहा था। लोग रज़ाइयों में दुबके पड़े थे। अचानक सेना की गाड़ियों की घरघराहट और लाउडस्पीकरों की आवाज़ ने गाँव की शिथिलता तोड़ दी। लोग ठिठुरन भूलकर दरवाज़े पर भागे आए।
गाड़ियों पर
हथियार-बंद सैनिक सवार थे। ऐलान हो रहा था--‘‘सभी
गाँववासियों से अपील की जाती है कि वे आठ घंटे के भीतर यह गाँव ख़ाली कर दें। जो
व्यक्ति गाँव ख़ाली नहीं करेगा उसे आज्ञा-उल्लंघन का आरोपी माना जाएगा। यह ऐलान
आपकी सुरक्षा के लिए किया जा रहा है। आप लोग धैर्य रखें और सहयोग करें।....सभी
गाँववासियों....’’ और गाड़ियाँ
आगे बढ़ गईं।
अलसाई आँखों
की नींदें ग़ायब हो गईं। चेहरों पर चिंता की लकीरें उभर आईं। इस ऐलान का मतलब साफ
था--युद्ध। हालाँकि यह नई
बात नहीं थी। पड़ोसी देश से तनाव के चलते अक्सर ऐसी परिस्थितियाँ बना करती थीं।
गाँववालों की आँखें रात को आकाश में आतिशबाजियाँ देखने की अभ्यस्त थीं। कान दिल
दहला देने वाले धमाके सुनने के आदी थे। मगर इस बार परिस्थितियाँ कुछ भिन्न थीं।
जंग बड़े पैमाने पर छिड़ने की आशंका थी।
लगभग पैंतीस
घरों वाले उस गाँव में ज़्यादातर लोग ग़रीब थे। दिन भर की मेहनत के बाद दो वक़्त का
भोजन जुटा लेना उनके लिए आसान न था। घर के नाम पर छोटे-छोटे दड़बे थे और गृहस्थी के
नाम पर कपड़े-लत्ते और बर्तन-भाँड़े। मतलब यह कि उनके पास जंग में बर्बाद होने के
लिए कुछ नहीं था और किसी भी क्षण उन्हें दो-चार घंटे का समय देकर निकाला जा सकता
था। मगर इतनी गृहस्थी जुटाने में ही गाँववाले बूढ़े हो गए थे। उनके हाथों में
घिट्ठे पड़ गए थे, नज़रें धुँधला
गईं थीं और चेहरा झुर्रियों का घर हो गया था।
गाँववाले
अफरा-तफरी में एक-दूसरे को पुकारते हुए इधर-उधर दौड़-भाग करने लगे। आठ घंटे बहुत
नहीं थे।
अक्कू, जो सुबह दस बजे तक दरवाज़े पर बैठा
उबासियाँ लिया करता था, आज बहुत समय
बाद इतनी जल्दी उठा था। स्वभाव से वह मस्त तबीयत का था। फिक्र और उलझनें सिर पर
नहीं लादता था। मज़ीर् होती तो काम करता,
नहीं तो लेटकर गाने गाता। हँसी-मज़ाक़ करते रहना उसकी आदत थी। लेकिन आज पूरब में
फूट रही हल्की-हल्की लालिमा उसके मन में भय पैदा कर रही थी। कुहासे से भरा आसमान
सिर पर बोझ बनकर झुका आ रहा था। शीतल हवा जैसे और भी ठंडी होकर हड्डियों में समाई
जा रही थी।
‘‘बेटा अक्कू, तू खड़ा-खड़ा क्या कर रहा है?’’ दोरमी चाचा कह रहे थे,
‘‘भगवान यह दिन दोबारा न दिखाए। चल,
जल्दी यहाँ से निकल चल। चाहे तो मेरा एक टट्टू ले ले।’’
अक्कू हड़बड़ा
गया। और कोई दिन होता तो शायद वह अपना दुबला-पतला शरीर तानकर कहता, ‘‘चाचा, एक टट्टू से काम नहीं चलेगा। कम से कम दो तो चाहिए ही मेरा
वज़न ढोने के लिए।’’
शायद चाचा भी
हँस पड़ते। पर आज अक्कू ख़ामोश रह गया। एक फीकी-सी मुस्कान चेहरे पर आई और बुझ गई।
उसने चारों
तरफ एक बार नज़र दौड़ाई। हृदय में हूक-सी उठी। पूरा गाँव उजड़ रहा था। ग़नी एक बक्से
में सामान भर रहा था। उसकी लड़की लकड़ी का हाथी लिए साथ ले चलने की ज़िद कर रही थी।
पुरुषोत्तम कंबल में चीजें बाँधते-बाँधते एक ढोल लिए असमंजस में खड़ा था। सोच रहा
था रखे या न रखे। दज्जू ने इतना सामान भर लिया था कि उसकी चादर छोटी पड़ गई थी और
बँधने में नहीं आ रही थी। करीम का टट्टू उछल रहा था। उसे काबू में रखने के लिए वह
डंडे बरसा रहा था। ज़ैबू के लड़के ने रखते-रखते रेडियो चला दिया था और अब तमाचा खाकर
रो रहा था।
अक्कू की
आँखें भर आईं। उसने एक बार पूरे घर को आँख भरकर देखा। दरवाज़े के पास लगी, सर्दी में खिलने वाली बेल फूलों से लदी पड़
रही थी। उन फूलों में ख़ुशबू भले नहीं होती थी, पर दिखते बड़े सुंदर थे। वह उन्हें देर तक बैठा निहारा करता
था। अभी परसों ही उसने बेल के चारों तरफ पत्थरों का घेरा बना दिया था।
अक्कू घर में
खड़ा सोच रहा था, क्या छोड़ दे
और क्या ले जाए। तभी उसकी नज़र हुक्के पर पड़ी। उसे उठाकर उसने सीने से लगा लिया।
अभी दो दिन पहले की बात है। रपफ़ीक़ चाचा ने उससे कहा था कि जब वह हुक्का पीता नहीं
तो रखने का क्या पफ़ायदा। दस-बीस लेकर दे दे,
पर अक्कू ने कहा था, ‘‘कोई लाख रुपए
दे, तो भी नहीं दूँगा!’’
सचमुच लाख
रुपए से भी क़ीमती था उसका हुक्का। उसके बाप की आखिरी निशानी। उसका बाप दिन भर घर
में लेटा हुक्का पिया करता था। न काम,
न काज। अक्कू को उसकी यह आदत अच्छी नहीं लगती थी। उसके चिड़चिड़े और बात-बेबात
झगड़ने वाले स्वभाव से गाँववाले भी परेशान थे। पर अक्कू उसे चाहता बहुत था। उसके
मरने के बाद वह बहुत रोया था। आज भी जब उसकी याद आती है, तो ख़ूब रोता है। हुक्का देखकर अक्कू को
फिर वही दिन याद आ गए। वह जगह,
जहाँ वह लेटता था, जहाँ
बैठा-बैठा सो जाया करता था, जहाँ बैठकर
बड़बड़ाता था। अक्कू को अचानक अपना घर क़ीमती लगने लगा। सारे जहान से क़ीमती। वह दीवार
से सिर टिकाकर रो पड़ा।
माँ की बहुत
धुँधली-सी स्मृति उसके मन में थी। बापू बताता था कि जब वह जाँता चलाती थी, तो बहुत मीठा पहाड़ी गीत गाया करती थी।
अक्कू को लगा माँ की आवाज़ आज भी दीवारों से टकराती हुई प्रतिध्वनित हो रही है और
वह उसे महसूस कर सकता है। अक्कू की आँखें फिर भर आईं।
सामने अधबुना
क़ालीन रखा था। वह सोचता था कि इसी तरह दो-एक क़ालीन और तैयार हो जाएँ तो ले जाकर
बेच आए। मगर अब तो सब कुछ छूट रहा था। पता नहीं दोबारा कब और किन परिस्थितियों में
आना हो।
कल तक उसके
पास कई काम थे, कई
जिम्मेदारियाँ थीं, कई मंसूबे थे, पर आज सब कुछ ख़त्म हो गया था। सामने फैले
बर्तन, चिटका घड़ा, लकड़ी का बड़ा-सा बक्सा, पुराने कपड़े, आले पर रखी तसबीह, तेल की ख़ाली शीशियाँ, पुराने कैलेंडर--अक्कू
खड़ा सोच रहा थाµक्या ले जाए
और क्या छोड़ दे?
तभी आँगन की
ओर मुर्ग़ी की कुड़कुड़ाहट सुनाई दी। अक्कू की तंद्रा टूटी। वह दड़बे के पास पहुँचकर
थोड़ी देर खड़ा रहा। फिर जाने क्या सोचकर दड़बे का दरवाज़ा खोल दिया और मुर्ग़ी के ऊपर
हाथ फेरते हुए भरे-भरे स्वर में बोला,
‘‘ऐना, आज मैं तुझे
छोड़कर जा रहा हूँ। क़िस्मत में होगा तो फिर मुलाक़ात होगी। ख़ुदा हाफ़िज़...’’
मुर्ग़ी ने
छूटकर पंख फड़फड़ाए। फिर उछलकर दीवार पर जा चढ़ी और दो-एक क़दम चलने के बाद उस पार कूद
गई।
‘‘बेटा अक्कू, चलना नहीं है क्या?
जल्दी कर बेटा, सब लोग जा रहे
हैं।’’ दोरमी चाचा कह रहे थे।
‘‘चलता हूँ, चाचा,’’
उसने बोझिल स्वर में कहा।
चलते-चलते
अक्कू दरवाज़ा बंद करने को हुआ,
पर उसे खुद पर हँसी आई। अब किसके डर से दरवाज़ा बंद करे। सब तो गाँव छोड़कर जा
रहे हैं। दरवाज़ा खुला छोड़ वह तेज़ क़दमों से आगे बढ़ गया।
समय की गति
कभी नहीं थमती। समय का चक्र निरंतर गतिमान रहता है। महीना-दो महीना बीतते-बीतते
सीमा पर अमन-चैन होने की ख़बरें सुनाई देने लगीं। सबने चैन की साँस ली। लोग
धीरे-धीरे वापस लौटने लगे।
अक्कू को ख़बर
मिली तो वह भी लौट पड़ा। राह में दो-एक साथी और मिल गए। वे किसी दूसरे गाँव के थे, पर उन्हें एक लंबा रास्ता साथ-साथ तय करना
था, इसलिए आपस में दोस्ती
हो गई थी। वे हँसते-बोलते अपना सफ़र तय करने लगे।
सर्दी उतार पर
थी। पेड़ों से पत्ते टूटकर गिर रहे थे। मौसम खुला-खुला-सा लग रहा था। अक्कू मौसम का
मज़ा लेता ऊँची आवाज़ में गाता चला जा रहा था।
जैसे-जैसे
गाँव नज़दीक आता जा रहा था, अक्कू के हृदय
में तरंगें उठ रही थीं। अजब-सी पुलक हिलोरें मार रही थी। लगता था बरसों से खोई चीज़
प्राप्त होने जा रही है। मारे ख़ुशी के आँखें छलकी पड़ रही थीं।
गाँव की सीमा
में क़दम रखते ही वह दौड़ पड़ा और सीधा अपने घर के सामने आकर रुका। पर यह क्या? उसका घर कहाँ गया? जिस जगह पर उसका घर था, वहाँ अब सिर्फ मिट्टी का एक ढूह बचा था, जिस पर बारूद की राख फैली हुई थी। ढूह में
से अधजले पटरे, कड़ियाँ झाँक
रही थीं। अचानक ढूह के ऊपर कुछ कुलबुलाया। अक्कू ने पहचाना तो उसका हृदय दुख से फट
पड़ा। वह झुलसे पंखों वाली उसकी मुर्ग़ी ऐना थी। ऐना उसे पहचानकर ज़ोर से कुड़कुड़ाई।
अक्कू फफककर रो पड़ा।
देश ने दुश्मन
को धूल चटा दी थी। उसे बुरी तरह परास्त कर दिया था। सारी दुनिया उसकी नीति की
प्रशंसा कर रही थी। देश ने इस युद्ध में बहुत कुछ बचा लिया था--अपना
गौरव, देशवासियों की
भावनाएँ, अन्य देशों की
दृष्टि में अपना मान।
...लेकिन
अक्कू का घर नष्ट होने से नहीं बचा पाया था।