जमुनिया बाग के मेले में दो ही चीजें खास होती
थीं--एक, जुम्मन मुरादाबादी के बर्तनों
की दूकान और दूसरी, दूर-दूर से इकट्ठा होनेवाले
पहलवानों का दंगल। जुम्मन की दूकान जहाँ सिर्फ अमीरों और शौकीनों का ही ध्यान अपनी
तरफ खींच पाती थी, वहीं दंगल देखने छोटे-बड़े, अमीर-गरीब
सभी आ जुटते।
दंगल में दूर-दूर के पहलवान दाँव आजमाने आते
थे। पहाड़-सी छाती और मजबूत भुजाओं वाले। जब वे बदन पर मालिश करके अखाड़े में उतरते
तो देखने वालों की aभीड़ उमड़ पड़ती। पहलवान गर्व से मूँछें ऐंठकर और ताल ठोंककर अपनी
शक्ति का प्रदर्शन करते। लोग वाह-वाह करते और तालियाँ बजाते न थकते।
जमुनिया बाग के दंगल में पिछले तीन सालों से एक
ही नाम सबकी जुबान पर था--सुल्तान। इन तीन सालों में उसे कोई नहीं हरा पाया था। एक
से एक बढ़कर ताकतवर आए, एक से एक बढ़कर दाँवबाज जुटे, पर
उसके आगे कोई नहीं ठहर पाया। जब वह अखाड़े में उतरता तो उसका पहाड़ जैसा चट्टानी
शरीर और दृढ़ निश्चय से भरी आँखें देखकर सामने वाला पहलवान यूँ ही दहल जाता।
सुल्तान ने पहलवानी किसी से नहीं सीखी थी। न तो
वह आज तक किसी अखाड़े में गया था और न किसी ने उसे पहलवानी के गुर ही सिखाए थे। फिर
भी तीन सालों से वह जीतता आ रहा था। लोग कामयाबी का राज पूछते तो तो हँसकर कहता, ‘‘जिंदगी
से बड़ा कोई दंगल नहीं है। हालात ने मुझे सब कुछ सिखा दिया।’’
सचमुच, सुल्तान ने
बड़ी मुसीबतें झेली थीं। बचपन में ही माँ-बाप का साया सिर से उठ गया था। दुख की घड़ी
में सगे चच्चा रहमतुल्लाह ने भी आँखें फेर लीं। यही नहीं, भाई
की जायदाद भी हड़प गए। सुल्तान दर-दर की ठोकरें खाने लगा। भूखा-प्यासा रहकर इधर-उधर
भटकता रहा। लू के थपेड़ों में झुलसते, बारिश में गलते और सर्दी में
ठिठुरते जब सुल्तान बड़ा हुआ, तो मुसीबतें झेल-झेलकर मजबूत हो
चुका था। दो जून ठीक से रोटी न मिल पाने पर भी उसका शरीर ऐसा गठीला और मजबूत निकला
था कि लोगों को आश्चर्य होता। किस्मत ने उसके हाथों से सब कुछ छीन लिया था, पर
कसरत और पहलवानी का शौक उससे नहीं छूटा था। रोज सवेरे जमकर कसरत करना उसकी आदत बन गई
थी।
सुल्तान जवान हुआ तो हर्रू चच्चा ने शादी करा
दी। उसका जीवन हँसी-खुशी बीतने लगा। दो लड़के भी हुए। पर शायद उसके दुखों का अंत
अभी नहीं हुआ था। पत्नी भी बच्चों को उसके सहारे छोड़कर चल बसी। सुल्तान का संसार
ही उजड़ गया। लड़कों की देखभाल और दो जून की रोटी के इंतजाम में वह उलझकर रह गया।
इस बार भी मेले की तैयारियाँ शुरू हो गई थीं।
दूर-दूर से दूकानदार आ गए थे और बाँस-बल्लियाँ गाड़कर अपनी दूकानें सजाने लगे थे।
गाँव की शुरुआत से लेकर पीर बाबा की मजार तक बल्लियाँ गाड़ दी गई थीं। उन पर
झंडियाँ और झालरें सजाई जा रही थीं। मुख्य सड़क से जुड़ने वाला खड़ंजा जैसे जाग उठा
था। सामानों से लदे ट्रैक्टरों की धड़धड़ाहट, बैलगाड़ियों
की चर्र-चूँ और हथठेलों की ‘हटो-बचो’ से सारा गाँव
गूँज रहा था।
सबसे ज्यादा खुश लड़के थे। दिनभर में उनके बीसों
चक्कर लग जाते। हर चक्कर में वे नई सूचना लेकर आते--‘बंगाल का
काला जादू आ गया है,’ ‘इस बार सर्कस में तीन जोकर हैं,’ ‘अबकी
चिड़ियाघर भी आया है’ आदि-आदि। घर की औरतें बड़ी
रोचकता से उनकी बातें सुनतीं।
गाँव के नवयुवक काम निपटाकर अखाड़े की तरफ निकल
जाते। अखाड़ा तैयार करने का काम जोर-शोर से चल रहा था। मिट्टी गोड़कर भुरभुरी की जा
रही थी। आस-पास थोड़ी दूर तक बाँस गाड़कर घेरा बना लिया गया था ताकि जोश में भरी भीड़
को रोका जा सके और निर्णायक आदि भी सुविधापूर्वक अपना काम कर सकें।
अखाड़ा हमेशा मेले से थोड़ा हटकर बनाया जाता था।
इस बार यह बुधई के आम के बाग के पास बनाया गया था। बुधई परेशान था। इस बार फसल
अच्छी थी। आम के पेड़ों में टिकोरे आना शुरू हो गए थे। डालें लदर-बदर हो रही थीं।
जो भी उधर आता , हाथ बढ़ाकर दो-एक टिकोरे तोड़
लेता। बस, बुधई बड़बड़ाते दम न लेता।
चैबीसों घंटे लाठी लिए मेड़ पर अड़ा रहता। गाँव भर के शरारती लड़कों के लिए खेल हो
गया था। छेड़-छेड़कर उन्होंने बुधई का गला बिठा दिया था। दरअसल, बाग
के किनारे अखाड़ा बनवाने की योजना भी इन्हीं शरारतियों की थी। बात-बेबात बड़बड़ाने
वाले बुधई को परेशान करने का उन्हें अच्छा तरीका मिला था।
इस बार लोगों में सुगबुगाहट थी कि मशहूर पहलवान
दिलदार भी दंगल में आ रहा है। दिलदार अब तक एक भी दंगल हारा नहीं था। जहाँ चार लोग
जुटते कि चर्चाएँ शुरू हो जातीं। कोई कहता कि इस बार सुल्तान का जीत पाना मुश्किल
है, तो कोई उसके गुन गाते न थकता।
जितने मुँह उतनी बातें।
सचमुच दूसरे ही दिन से गाँव में एलान होने
लगा--‘‘भाइयो-बहनो, इस
बार जमुनिया बाग के दंगल में पधार रहे हैं रुस्तमे हिंद, पहलवानों
के शहंशाह, मशहूर पहलवान
दिलदार-ए-हिंदोस्तान!’’
इस बार मुकाबला वाकई कठिन था। दिलदार अब तक एक
भी दंगल नहीं हारा था। वह पूरे देश में घूमकर अपनी फतह के झंडे गाड़ चुका था। दबे
मुँह यह बात भी कही जा रही थी कि बिसेसर ने काफी कोशिशें करके उसे बुलवाया है।
पैसे और नजराने दिए हैं, नहीं तो भला इतना मशहूर पहलवान
छोटे से गाँव में आता ?
दरअसल, पिछली बार
सुल्तान से बिसेसर की, जो दंगल का आयोजन करता था, कुछ
कहा-सुनी हो गई थी। बिसेसर ने तमतमाकर कहा था-‘‘देखता हूँ इस
बार तुम कैसे जीतते हो !’’ तब इस बात पर किसी ने ध्यान
नहीं दिया था, मगर अब यह साफ था कि दिलदार के
आगमन का संबंध कहीं न कहीं उस घटना से अवश्य था।
मगर सुल्तान पर इसका कोई असर नहीं था। वह
मुस्कराकर कहता, ‘‘भाई जिताना-हराना तो ऊपर वाले
के हाथ है। वह चाहता है तो हार भी जीत में बदल जाती है, नहीं तो
इंसान लाख कोशिश कर ले, उसके बस में भला क्या है ?’’ और
अपनी पुरानी संदूक सायकिल में लगाकर काम पर निकल जाता। वह ताले-चाबियाँ बनाने और
मरम्मत करने का काम करता था। लोग कहते थे कि तालों की मरम्मत करने वाला उससे अच्छा
कारीगर आस-पास के इलाके में नहीं है। कैसा भी खराब ताला हो उसका हाथ लगते ही ठीक
हो जाता है। ताले ही नहीं, टूटे छाते, बाल्टियाँ, बक्से, टीन
के डिब्बे वगैरह की मरम्मत करने में भी वह गुनी था। पर कारोबार ऐसा था कि आमदनी
बहुत कम हो पाती। गाँव में भला ताले कौन ठीक करवाता ?
जहाँ
भी जाता लोग कहते, ‘‘ सुल्तान भाई, हमें
ताले की क्या जरूरत ? हमारे पास है ही क्या जिसे बंद
करके रखेंगे ? हम तो रोज कुआँ खोदते हैं और
रोज पानी पीते हैं।’’
सुल्तान
भला क्या जवाब देता। गाँवों की सच्चाई से वह अच्छी तरह परिचित था। गाँव
वालों की किस्मत उससे अलग न थी। उसे बहुत पहले की याद आती जब वह एक चुनाव रैली में
शहर ले जाया गया था। एक नेता जी रामराज्य का सपना दिखाते हुए कह रहे थे-‘‘भाइयो, हमारे
देश में कुछ गाँव ऐसे भी हैं जहाँ घरों में ताले नहीं लगाए जाते। हमें संपूर्ण
भारत को वैसा ही बनाना है।’’
तब वह इस जानकारी से बहुत चकित हुआ था। उसे
खुशी हुई थी कि हिंदोस्तान में कहीं ऐसा भी है जहाँ के लोग इतने शरीफ और ईमानदार
हैं। पर इस बात की असलियत तो बहुत बाद में समझ आई थी। सचमुच, गाँव
के गरीब लोगों के पास है ही क्या जिसे वह ताले में बंद रखें। ताला तो उनकी किस्मत
पर लगा है।
पर सुल्तान यह पेशा अपनाने के लिए मजबूर था। न
तो उसके पास खेती थी और न ही इतनी पूँजी कि कोई रोजगार शुरू कर सके। हाँ, हर्रू
चच्चा के पास बैठते-बैठते वह पेट पालने को यह काम जरूर सीख गया था। उसके बच्चे भी
बदहाल थे। न तन पर ढंग के कपड़े, न पेट भर भोजन। गरीबी ने उनका
बचपन छीन लिया था।
उसकी झोपड़ी में हर मौसम आकर पूरे समय ठहरता था।
टूटे छप्पर में न तो गर्मी की लू-धूप और तपिश रुकती थी , न
बारिश की बौछारें और न सर्द हवाएं। बस, सुल्तान अपने दोनों बच्चों के
साथ किसी तरह जी रहा था।
इधर जब से बच्चों ने गाँव वालों को बातें करते
सुना था कि इस बार अब्बा दंगल हार जाएंगे, मायूस थे। हर
बार जब सुल्तान जीतता तो उन्हें मिठाइयाँ खाने को मिलती थीं, इनाम
के पैसों से उनके कपड़े तैयार होते थे, कई दिनों तक भरपेट अच्छा खाना
मिलता था। मगर इस बार नाउम्मीदी थी। किसी काम में उनका दिल नहीं लगता था। ऐसे तो
वह मेले का साल भर इंतजार करते रहते थे, पर इस बार
उन्हें सब कुछ फीका-फीका लग रहा था। दिन भर घर पर बैठे रहते। सुल्तान बाहर घूम आने
के लिए कहता तो गली में जाकर खड़े हो जाते। यह देखकर सुल्तान का हृदय फट पड़ता। पल
भर को उसके आत्मविश्वास का हिमालय डगमगा उठता, पर वह किसी
तरह खुद को संभाल लेता।
आज का दिन सुल्तान के लिए बड़ा बेचैनी भरा बीता
था। कल दिलदार से उसका मुकाबला होना था। सुल्तान के मन में यह विश्वास तो था कि
कामयाबी उसे ही मिलेगी, पर लोगों की बातें सुनकर और
बच्चों की मायूस सूरतें देखकर डगमगा उठता।
दंगल से एक दिन पहले की बात है। रात का वक्त
था। सुल्तान झोपड़ी के बाहर खाट पर बैठा था। कल दिलदार से उसका मुकाबला होना था।
दूसरी खाट पर बच्चे सो रहे थे। तेज पुरवाई की वजह से चिराग बुझ गया था। पर दूर
मेले की जगमगाहट से हल्का-हल्का रहस्यमयी उजाला फैला हुआ था। सुल्तान की आँखों में
नींद नहीं थी। वह अंधेरे में बैठा जाने क्या सोच रहा था। तभी सामने से एक परछाई
उसकी ओर बढ़ती दिखाई दी। उसने कड़ककर पूछा, ‘‘कौन है वहाँ ?’’
‘‘शऽऽऽ....’’ चुप
रहने का इशारा करती वह परछाई बिल्कुल करीब आ गई।
‘‘दिलदार भाई आप....!’’ सुल्तान
की आँखें अचरज से फैल गईं।
दिलदार ने होठों पर उंगली रखकर चुप रहने का
संकेत किया और इधर-उधर चैकन्नी निगाहों से देखता हुआ फुसफुसाया, ‘‘सुल्तान
भाई.. एक जरूरी बात करनी थी।’’
‘‘हाँ-हाँ, कहिए,’’ उसे
परेशान देखकर सुल्तान ने कहा, ‘‘आस-पास कोई नहीं है। बच्चे सो
रहे हैं।’’
दिलदार कुछ संयत हुआ। अंगोछे से माथे का पसीना
पोछा और लंबी साँस लेकर बोला, ‘‘माफ करना भाई, तुम्हें
इस वक्त परेशान किया। दरअसल...’’
‘‘हाँ-हाँ, कहो,’’ सुल्तान
ने उत्साहित किया।
‘‘दरअसल...मैं चाहता हूँ... तुम
कल का मुकाबला हार जाओ।’’
पल भर को सुल्तान हतप्रभ रह गया। पर अगले ही
क्षण सँभलते हुए बोला, ‘‘मगर तुमने यह कैसे मान लिया कि
कल के मुकाबले में मेरी ही जीत होगी।’’
अब तक दिलदार व्यवस्थित हो चुका था। बोला, ‘‘कल
की कुश्ती में एक पहलवान से भिड़ते देखकर ही मैं समझ गया था कि तुम्हारी जोड़ का
दूसरा पहलवान नहीं। तुम्हारी आँखों में जाने ऐसा क्या है जो सामने वाले को कमजोर
कर देता है। नजरें मिलते ही लगता है कि सारी ताकत किसी ने सोख ली हो। मैं पूरा
हिंदोस्तान घूमा हूँ, पर ऐसा मेरे साथ कभी नहीं हुआ।
जाने क्यों लगता है कि तुम्हारे सामने आकर मैं हार जाऊँगा।’’
‘‘इसका फैसला तो कल ही हो सकेगा।’’ सुल्तान
ने उपेक्षा से कहा।
‘‘ सुल्तान भाई,’’ दिलदार
ने उसके दोनों हाथ थाम लिए, ‘‘तुम चाहो तो मुझे बेइज्जती से
बचा सकते हो। मुझे सारा हिंदोस्तान जानता है। अगर हार गया तो बड़ी बदनामी होगी। लोग
कहेंगे पूरे हिंदोस्तान को झुकाने वाला पहलवान एक बेनाम इसान के आगे धूल चाट गया।’’ यह
कहते-कहते दिलदार ने उसके हाथों में कोई चीज थमा दी।
‘‘ सुल्तान भाई...’’ भारी-भरकम
काले पहाड़-सा शरीर सुल्तान के कदमों में पड़ा गिड़गिड़ा रहा था, ‘‘छोटी-सी
भेंट है, सुल्तान भाई। रख लो सौ-सौ के दस
हैं।’’
‘‘अरे-अरे!’’ सुल्तान
चीख पड़ा, ‘‘यह क्या कर रहे हो ? अपने
पैसे उठाकर फौरन यहाँ से चले जाओ। वर्ना मैं भूल जाऊँगा कि तुम मेरे दरवाजे खड़े
मेहमान हो।’’
‘‘चला जाऊँगा, सुल्तान
भाई,’’ दिलदार ने सिर झुका लिया, ‘‘मगर
एक हजार रुपए कम नहीं होते। खुद की नहीं तो कम से कम बच्चों की तो परवाह करो।
बिसेसर ने मुझे तुम्हारे बारे में सब कुछ बता दिया है। अगर इनकी माँ जिंदा होती तो
क्या इन्हें इस हालत में देख पाती। बेचारी ने क्या-क्या सपने सजाए होंगे--बच्चे पढें-लिखेंगे, स्कूल
जाएंगे, बड़े आदमी बनेंगे। तुम दे पाए
इन्हें ये सब ? न तन पर साबुत कपड़े, न
भरपेट खाना, लाचारी और दुखों के सिवा क्या
दिया तुमने इन्हें ? क्यों बरबाद कर रहे हो इनकी
जिंदगी ? अपने हिस्से की बदकिस्मती क्यों
इन पर थोप रहे हो ? कुछ इनके बारे में भी सोचो ?’’ दिलदार
थोड़ा ठहरा, ‘‘मैं जा रहा हूँ। रुपए यहीं रखे
हैं। अपने फैसले पर फिर से सोच लेना।’’
सुल्तान सिर झुकाए खड़ा रहा। उसकी आँखों में
आँसू तैर रहे थे। उसने एक बार बच्चों की ओर देखा। टूटी खाट पर दोनों गड्ड-मड्ड सो
रहे थे। पुरवाई की शीतलता से वे सिमटे हुए थे। हवा झोंके मार रही थी। छप्पर के फूस
उजड़-उजड़कर हवा में तैर रहे थे। सुल्तान भरी आँखों से बड़ी देर तक ठंड से सिमटते
बच्चों, उजड़ते छप्पर और टूटे घर को
देखता रहा। फिर जाने क्या सोचकर आँसू पोंछे और पैसे उठाकर झोपड़ी में चला गया।
अगले दिन मेले में बड़ी भीड़ थी। दूर-दूर से लोग
बैलगाड़ियों, ट्रैक्टरों में भर-भरकर आ रहे
थे। भीड़ इतनी बढ़ गई थी कि कंधे छिल रहे थे। एक शोर-सा मच रहा था। लोग तेज धूप की
परवाह न करके आगे जगह पाने के लिए बड़ी देर से अड़े थे। बांसों की बाड़, मालूम
देता था अब टूटी कि तब। कहीं कोई झगड़ रहा था, कहीं कोई
ठट्ठे मार रहा था। तरह-तरह के शोर से वातावरण गूँज रहा था।
आखिरकार इंतजार की घड़ियाँ खत्म हुईं। बिसेसर
अखाड़े में आकर बोला, ‘‘भाइयो, शांत
हो जाएं।’’
सारी आवाजें एकाएक थम गईं। जैसे किसी ने जादू
की छड़ी फेर दी हो।
‘‘अब आपके सामने शुरू होने वाला
है...दिलदारे हिंद और सुल्तान के बीच जोरदार मुकाबला। तैयार हो जाइए..., देखना
है इस बार का मुकाबला कौन जीतता है।’’
तालियों की गड़गड़ाहट के बीच दोनों पहलवान अखाड़े
में उतर पड़े। दिलदार उत्साह से भरा था और अखाड़े के चारों ओर घूम-घूमकर अपनी
मांसपेशियां दिखा रहा था। पर सुल्तान भीड़ से बेखबर अपने आप में खोया हुआ खड़ा था, जैसे
उसे किसी से मतलब ही न हो।
आखिरकार मुकाबला शुरू हुआ। दिलदार शुरुआत से ही
भारी पड़ रहा था। उसके दाँव-पेंचों में सुल्तान उलझकर रह जाता। लोगों की तालियों और
‘वाह-वाह’ से उसका
उत्साह और बढ़ा हुआ था। सुल्तान मौका पाकर जो भी दाँव चलता, दिलदार
उसकी काट तैयार कर लेता।
काफी वक्त हो गया। दोनों पहलवान डटे रहे।
बार-बार लगता कि दिलदार अबकी सुल्तान को चित कर देगा। पर अंतिम क्षणों में सुल्तान
अपने को बचा ले जाता।
लोग दम साधे देख रहे थे। जोश से उनकी मुट्ठियाँ
कसी हुई थीं।
वक्त लगता देख दिलदार ने सुल्तान के कान में
फुसफुसाकर कहा, ‘‘बस...अब खत्म करो, सुल्तान
भाई!’’
पर आश्चर्य! सुल्तान ने जैसे सुना ही न हो।
थोड़ी देर बाद मौका पाकर दिलदार ने उसे फिर चेताया। इस बार सुल्तान ने साफ-साफ सुना, मगर
उस पर कोई फर्क न पड़ा। अब तक उत्साह से लड़ने वाले दिलदार के पैर लड़खड़ा उठे। अचानक
उसकी आँखें सुल्तान की आँखों से मिलीं। सुल्तान की आँखें विजय के दृढ़ निश्चय से
दीप्त हो रही थीं। दिलदार पस्त हो गया। लगा उसकी ताकत किसी ने सोख ली हो। दिल
बैठने लगा। हाथ-पैर बेजान हो गए। अगले ही क्षण वह ‘धप्प’ से
गिरकर चित हो गया।
‘‘माफ करना दिलदार भाई,’’ सुल्तान
बोला, ‘‘मैंने अपनी आत्मा को समझाने की
बहुत कोशिश की पर कामयाब न हुआ। मैं जैसा भी हूँ, ठीक हूँ।
मुझे अपनी गरीबी प्यारी है। हजार तो क्या लाख रुपए में भी मैं अपनी आत्मा का सौदा
नहीं कर सकता। तुम्हारे रुपए तुम्हें मुबारक हों।’’
दिलदार फटी-फटी आँखों से सुल्तान को देख रहा
था।
भीड़ बेकाबू हो रही थी। बाँसों की बाड़ करकरा कर
टूट गई। ‘ सुल्तान जिंदाबाद’ के
नारों से आकाश गूँज उठा। सुल्तान की आँखें खुशी से भीगी हुई थीं। बच्चे भी खुशी से
उछल रहे थे।
बहुत अच्छा लेख
ReplyDeleteबहुत अच्छी कहानी !
ReplyDeleteसंदेश देती बढिया कहानी।
ReplyDeleteअरे वाह, बहुत ही प्यारी है आपकी कहानी। सचमुच मन आनन्दित हो उठा।
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