...और मियाँ
चिलगोज़ा लड़कों से उलझ गए।
हुआ यह था कि वह बजरंगी की गुमटी पर पान खाने रुके थे। आदत
थी कि पान लगवाते तो कत्था, चूना, ज़र्दा, इलायची,
नारियल, क़िवाम--इतनी चीज़ें डलवाते कि बजरंगी को कहना पड़
जाता, ‘हकीम साहब, जो दो रुपए दिए हैं, कहिए तो वह भी डाल दूँ।’
आज भी जब वे पान खाने रुके तो दो रुपए वसूल करने के चक्कर
में ज़र्दा ज़्यादा डलवा लिया। ज़र्दा था भी ऐसा असरदार कि उनकी कनपटियों से पसीना
चू गया। उन्हें बेचैनी से सीना सहलाते देख एक मसखरे ने कहा, ‘‘हकीम साहब, ज़र्दा ज़रूर खाइए पर सेहत का भी ख्याल रखिए, ऐसा न हो कि गश खाकर गिरें तो सहारा देना
पड़े।’’
बस, पाँच फुट के
मियाँ चिलगोज़ा ताव खाकर दस फुट उछल गए।
‘‘बर्ख़ुरदार, पान खाना हमारा ख़ानदानी शौक़ रहा है।
ज़ाफ़रान और केसर से मुअत्तर क़िवाम और ख़मीरे तुम सबने देखे भी नहीं होंगे। मियाँ, अगर महक भी ले लेते तो पाँच दिन होश न
रहता। बड़े आए बातें करनेवाले!’’
‘‘कहाँ बीते
ज़माने की बातें कर रहे हैं, हकीम साहब।’’ दूसरे मसखरे ने उनके ताव पर सान चढ़ाई, ‘‘जंगल में मोर नाचा किसने देखा? आज की बात करिए। आज का मुक़ाबला न तो
पुराना ज़माना कर सकता है और न पुराने लोग।’’
‘‘क्या कहा...?’’ मियाँ चिलगोज़ा एक दम तवा हो गए, ‘‘अमाँ मुक़ाबला कर लो। चाहे ताक़त में, चाहे अक़्ल में, पार न पाओगे। तुम जैसों की तरह मिलावटी
चीज़ें खाकर नहीं पला हूँ।’’
अब तक लोगों का मजमा इकट्ठा हो गया था। सब मज़े ले रहे थे।
भीड़ में से किसी ने कहा, ‘‘हकीम साहब, ये आज के लड़के ऐसे नहीं मानेंगे। आपको
ज़रूर कुछ करके दिखाना होगा।’’
‘‘हाँ-हाँ, अगले हफ्ते ‘क्रास-कंट्री’ दौड़ होने जा रही है। यह अच्छा मौका है।
चैम्पियन बनकर सबके होश उड़ा दीजिए।’’
एक और आवाज़ आई।
‘‘हाँ-हाँ, सही कहा, यही ठीक है।’’
भीड़ ने शोर मचाया।
जोश में अच्छे-अच्छे होश खो बैठते हैं, मियाँ चिलगोज़ा तो वैसे भी बड़बोले थे। बात
की बात में तय हो गया कि अगले हफ्ते होनेवाली रेस में हिस्सा लेकर और अव्वल नंबर
आकर सबका मुँह बंद कर देंगे।
भीड़ अपने रास्ते चली,
मियाँ चिलगोज़ा अपने रास्ते। घर तक पहुँचते-पहुँचते मियाँ चिलगोज़ा की ख़ुमारी
उतर गई। अब जाकर उन्हें अहसास हुआ कि वो जोश में क्या गज़ब कर बैठे। रेस का ख़्याल
आते ही टाँगें थरथराने लगीं। हालत पतली हो गई। पर लोगों के सामने ज़बान दे चुके थे, अब पीछे पलटना मुमकिन न था।
अँधेरा हुआ तो मियाँ चिलगोज़ा कंबल ओढ़कर छिपते-छिपाते हकीम
बंदा मेहंदी के दवाख़ाने जा पहुँचे। हकीम साहब के बारे में लोग कहते थे कि उनके पास
ऐसे-ऐसे माजून और ख़मीरे हैं कि एक हड्डी का आदमी भी दारा सिंह बन जाए। क़स्बे में
जगह-जगह उनके दवाख़ाने के पोस्टर चिपके हुए थे जिनमें एक ओर दुबला-पतला, कमज़ोर और बीमार आदमी बना रहता था तो दूसरी
ओर कसरती बदनवाला हट्टा-कट्टा पहलवान।
इसी उम्मीद और जादुई कायापलट की आस लेकर मियाँ चिलगोज़ा उनके
दरवाज़े पहुँच गए।
सहन में किसी की आहट पाकर लालटेन की रोशनी ऊँची करते हुए
हकीम साहब बोले, ‘‘वहाँ कौन है?’’
मियाँ चिलगोज़ा कंबल ओढ़े हाँफते-काँपते हकीम साहब के सामने आ
खड़े हुए।
‘‘अमाँ मियाँ, इतनी गर्मी में कंबल ओढ़कर निकले हो, तबीयत तो ठीक है? मलेरिया-वलेरिया तो नहीं हो गया?’’ हकीम साहब चौंकते बोले।
‘‘ऐसा ही समझो, हकीम साहब। अपनी तो जान पर बन आई है।’’ मियाँ चिलगोज़ा ने गिड़गिड़ाते हुए सारा
क़िस्सा कह सुनाया।
हकीम साहब ध्यान से सारी बात सुनते रहे। फिर उलाहना देते
हुए बोले, ‘‘अमाँ, ऐसी बात कहने की ज़रूरत ही क्या थी? ये उमर और बच्चों जैसी नादानी!’’
‘‘पर अब तो जो
कहना था कह दिया। किसी तरह नाक कटने से बचाइए। कभी दो क़दम तेज़ चाल से चला भी नहीं
हूँ, कहाँ ये दस किलोमीटर
की दौड़।’’ मियाँ चिलगोज़ा
ने हाथ जोड़ लिए।
‘‘पर मियाँ, ऐसी कोई दवा भी तो नहीं है, जो रातों-रात तुम्हें मिल्खा सिंह बना
सके।’’ हकीम साहब ने सिर
खुजलाते हुए कहा।
‘‘तो जगह-जगह जो
पोस्टर लगा रखे हैं, क्या वो सब
झूठ हैं?’’ मियाँ चिलगोज़ा
गरम होकर बोले।
‘‘अमाँ वे तो
हाथी के दाँत हैं--ग्राहकों को फँसाने के तरीक़े।’’ हकीम साहब खिसियाकर बोले, ‘‘और हकीम तो तुम भी कहलाते हो; अपने
लिए ख़ुद कोई नुसख़ा तैयार क्यों नहीं कर लेते?’’
‘‘अमाँ, मेरी
जान पर बनी है और तुम्हें मज़ाक़ सूझा है।’’ मियाँ चिलगोज़ा खिसियाते हुए बोले, ‘‘मेरी हिकमत के बारे में तुम्हें तो अच्छी
तरह पता है। मेरे नाम के साथ हकीम वैसे ही जुड़ा है, जैसे आजकल के लड़कों के नाम के साथ ग्रेजुएट।’’
‘‘वो तो ठीक है मियाँ पर इस उम्र में
तुम्हें ताक़त की कोई दवा दी भी तो नहीं दी जा सकती। कमज़ोर हाज़मे के लिए वह जुलाब
साबित होगी।’’ हकीम साहब सिर
खुजलाते हुए बोले।
‘‘पर कुछ तो करो
हकीम साहब, वर्ना मैं
कहीं मुँह दिखाने के क़ाबिल नहीं रहूँगा।’’
‘‘एक रास्ता
है...तुम अपने चचा के पास रामपुर चले जाओ।’’
‘‘अमाँ, ये उपाय है कि हँसी उड़वाने का माकूल
इंतज़ाम? लौटकर आऊँगा तो लोग
ताने दे-देकर जान नहीं ले-लेंगे।’’
‘‘मियाँ, पूरी बात तो सुनो...’’ हकीम साहब बताने लगे, ‘‘सुबह के ग्यारह बजे जब पान की गुमटी पर
सबसे ज़्यादा भीड़ होती है, मैं तुम्हारा
चचा बनकर बजरंगी के पास फोन करूँगा कि तबीयत बहुत ख़राब है। बस आज-कल का मेहमान
हूँ। आ जाओ तुम्हारे दीदार में ही रुह अटकी है।’’
‘‘वाह-वाह, क्या आइडिया है! मेरे फोन तो वैसे भी
बजरंगी के ही पास आते हैं। इस तरह लोगों को शक भी नहीं होगा।’’ मियाँ चिलगोज़ा ख़ुशी से उछल पड़े।
दूसरे दिन सुबह से ही मियाँ चिलगोज़ा पान की दूकान पर जा
बैठे। वे पहुँचे तो भीड़ भी आ जुटी। हँसी-ठट्ठा मचने लगा।
अभी साढ़े दस ही बजा था कि बजरंगी पानवाले का मोबाइल
टिनमिनाने लगा। कान से सटाकर ‘हलो’ कहते ही बजरंगी सिटपिटा गया और फोन मियाँ
चिलगोज़ा को थमाता हुआ फुसफुसाया,
‘‘आपके चचाजान हैं, रामपुर से..’’
मियाँ चिलगोज़ा का मन बल्लियों उछल पड़ा। भीतर ही भीतर पफूलते
हुए फोन कान से लगाया तो उधर से आवाज़ आई--‘‘अमाँ मियाँ, क्या हाल-चाल हैं? सुनने में आया है कि तुमने दस किलोमीटर की
दौड़ में हिस्सा लेने का फैसला किया है। ये बहुत अच्छी बात है। तुम मेरे असली भतीजे
हो। मैं कल सुबह की गाड़ी से आ रहा हूँ,
तुम्हें दौड़ की बारीकियाँ सिखाने।’’
अरे, बाप रे! ये तो
सचमुच चचा थे। दौड़ में भाग लेने की ख़बर उन तक भी जा पहुँची थी। मियाँ चिलगोज़ा को
लगा कि हार्ट-फेल हो जाएगा। फोन फेंककर सीधे हकीम साहब के घर जा पहुँचे।
सारी बात जानकर हकीम साहब भी सकते में आ गए। मियाँ चिलगोज़ा
उनके बचपन के दोस्त थे, उनकी
दुख-तकलीफ में वे हमेशा बराबर के शरीक रहे थे। उन्हें भी नहीं समझ में आ रहा था कि
करें तो क्या करें। एक रास्ता था,
वह भी हाथ से निकल गया।
मियाँ चिलगोज़ा मायूस होते हुए बोले, ‘‘हकीम साहब, आपकी दवाएँ बीमारी ठीक करती हैं। पर कोई ऐसी नहीं है जो
बीमार कर दे? कम से कम इसी
बहाने बच जाऊँ।’’
‘‘लेकिन बुखार
और दस्त से भी क्या होगा?’’ हकीम साहब
दाढ़ी खुजलाते हुए बोले, ‘‘लोग समझेंगे
बहाना बना रहे हैं। काम तो तब बनेगा जब कोई ज़ाहिरी बात हो, जैसे--टाँग टूट जाए, चोट लग जाए...’’
सुनते-सुनते मियाँ चिलगोज़ा अचानक उठ खड़े हुए और घर की ओर चल
पड़े। उनका चेहरा तमतमाया हुआ था। वह मन ही मन कोई निर्णय ले चुके थे।
घर पहुँचकर मियाँ चिलगोज़ा ने आव देखा न ताव, सीधे छत पर पहुँचे और आँख बंद करके, हिम्मत जुटाकर नीचे कूद पड़े।
हवा में अरा...रा...रा... ‘ध्म्म’ होते ही मियाँ
चिलगोज़ा लगे चिल्लाने, ‘‘हाय मर गया, मर गया, टाँग टूट गई। बचाओ।’’
पर उनकी आवाज़ के साथ-साथ एक और आवाज़ सुनाई दी, उनसे भी ज़्यादा तेज़, ‘‘हाय मर गया, मर गया,
कमर टूट गई। बचाओ।’’
मियाँ चिलगोज़ा ने नीचे देखा तो पता चला कि वो जिस गद्दे पर
गिरे थे और सोच रहे थे लोग नाहक ही गिरने से डरते हैं, वह और कोई नहीं कल्लन था, जो दीवार की टेक लेकर आराम फ़रमाने बैठा
था। मियाँ चिलगोज़ा को तो कुछ नहीं हुआ पर कल्लन की पीठ दोहरी हो गई। यह आइडिया भी
फेल हो गया। मियाँ चिलगोज़ा मुँह लटकाए फिर हकीम साहब के पास जा पहुँचे और लगे
बिसूरने।
हकीम साहब बड़ी देर तक ख़ामोश रहे, फिर बोले, ‘‘अब तो बस एक ही सूरत नज़र आती है। कल दौड़ में नाम लिखाने की
आख़िरी तारीख़ है। तुम घर पर चादर तानकर सो जाना। कोई पूछे तो कह देना याद ही नहीं
रहा।’’
अगले दिन मियाँ चिलगोज़ा की नींद हालाँकि अलस्सुबह उचट गई, पर वे दम साधकर पड़े रहे। सूरज सिर पर आ
गया, सड़कों पर चहल-पहल शुरू
हो गई, पर मियाँ चिलगोज़ा न
जागे। किसी तरह दोपहर दो बजे तक तो उन्हें सोना ही था।
ख़ुदा-ख़ुदा करके दो बजे। वह चादर फेंककर उठने ही वाले थे कि
दरवाज़े पर दस्तक हुई। मियाँ चिलगोज़ा ने आँखें मिचमिचाते और झूठी जम्हाइयाँ लेते
हुए दरवाज़ा खोला तो सामने रब्बू खड़ा था।
‘‘मियाँ साहब, आज नाम लिखाने की आख़िरी तारीख़ थी। आप नहीं पहुँचे तो
चेयरमैन साहब ने अपने पास से फीस जमा करके आपका नाम लिखा दिया।’’ रब्बू ने बताया।
मियाँ चिलगोज़ा को लगा अभी गश खाकर गिर पड़ेंगे। न रोते बन
रहा था, न हँसते। इतनी मेहनत
की, जान की बाज़ी लगाई, पर सब बेकार। अब तो दौड़ में हिस्सा लेना
ही था।
आख़िरकार दौड़ का दिन आ गया। सब लोग नगर पालिका के मैदान में
इकट्ठा हो गए। मियाँ चिलगोज़ा सबसे किनारे जाकर खड़े हो गए। ख़ूब हँसी-मज़ाक़ हो रहा
था। दौड़नेवाले खिलाड़ी जोश में उछल रहे थे। लोग चिल्ला-चिल्लाकर उनका हौसला बढ़ा रहे
थे।
दौड़ शुरू हुई। सब भाग चले। मियाँ चिलगोज़ा भी दौड़ पड़े। अब तो
उनके सामने एक ही रास्ता बचा था--करो या मरो। थोड़ी ही देर में उनकी साँसें
धौंकनी की तरह चलने लगीं,
कान की लवें लाल हो गईं, सीने पर जैसे
कोई हथौड़े मारने लगा। पर रुक रहना अब उनके बस में नहीं था।
मियाँ चिलगोज़ा दौड़ते रहे-दौड़ते रहे। जाने कितनी देर तक
दौड़ते रहे। जब फिनिशि-लाइन पर पहुँचे तो धुँधलाती आँखों से इतना ही दिखा कि बाक़ी
सब खिलाड़ी पहुँचकर उनका ही इंतज़ार देख रहे हैं।
फिनिशि-लाइन पार करते-करते मियाँ चिलगोज़ा ढह गए।
तभी उनके कानों में उद्घोषक की आवाज़ पहुँची। वह कह रहा था, ‘‘आज की दौड़-प्रतियोगिता में एक सबसे ख़ास
पुरस्कार दिया जा रहा है, जिसके विजेता
हैं- हकीम चिलगोज़ा। और यह पुरस्कार है--रेस में सबसे पीछे रहने का पुरस्कार।’’
मियाँ चिलगोज़ा ने तालियों की गड़गड़ाहट सुनी तो फूलकर कुप्पा
हो गए। पर होश खोने से पहले उन्होंने उद्घोषक की आख़िरी लाइन नहीं सुनी।
सरजी, अद्भुत कहानी... पढ़कर मजा आया...
ReplyDeleteधन्यवाद भाई
DeleteGreat creation sir G.....
Deleteमजेदार कहानी।
ReplyDeleteबहुत अच्छी कहानी
ReplyDeleteमनोरंजक कहानी ,बधाई .
ReplyDeleteMazedar Kahanee Padhwane Ka Shukriya.
ReplyDeleteबहुत अच्छी कहानी
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