Thursday 8 November 2018

दिवारी


मसूर की दाल जैसा सूरज जब साँझ को पेड़ों के पीछे उतरने लगता है तो उसमें न गरमी रह जाती है, न रोशनी। यही समय होता है जब हरचरन अपने मवेशियों को हाँकता हुआ गाँव वापस लौट चलता है। उसके पास एक बैल है और दो गाएँ। तीनों मवेशी सुंदरा ताई के हैं। ताई उसकी कोई नहीं, पर अपनों से बढ़कर हैं। ताई अकेली हैं और हरचरन के आगे-पीछे भी कोई नहीं। ताई उसे अपना बेटा मानती हैं, और वह उन्हें अपनी माँ।
‘‘ताई, ओ ताई कहाँ हो?’’ हरचरन ने दरवाज़े पहुँचकर पुकारा।
‘‘यहाँ हूँ, बच्चा,’’ अंदर से ताई का जवाब आया।
हरचरन ने पैर पटककर साफ किए और अंदर दाखि़ल हो गया। लीपा-पोता आँगन देखते ही उसके मुँह से अनायास ही निकल पड़ा, ‘‘अरे वाह ताई, बाहर पूरा गाँव सुरमई हो रहा है, पर तुम्हारे आँगन में तो जैसे सूरज उतर आया है।’’
छुई मिट्टी से लीपने के बाद आँगन सचमुच चमक उठा था।
‘‘क्या करें, बेटा, रज्जन परधान की तरह घर पर रंग तो लगवा नहीं सकते, सोचा लीप ही दें।’’ ताई दोनों हाथ मिट्टी में साने पल भर को रुककर बोलीं, ‘‘चौमासे के बाद काई-फफूँद से सारा घर हबूड़ा हो रहा था। कल दीवाली है। सोचा कुछ साफ-सफाई कर लें।’’
‘‘अरे ताई कितना काम करती हो इस उम्र में। बता दिया होता तो मैं ही निपटा देता।’’ हरचरन अपराधी भाव से बोला।
‘‘नहीं, बेटा, कुछ काम ख़ुद ही करना अच्छा रहता है। और वैसे भी तुमसे कितना काम लें? ख़ाली कब रहते हो? दिन भर तो खटते रहते हो।’’
‘‘अरे ताई, मैं कोई पराया हूँ जो मुझसे कहने में अहसान लगेगा। तुम्हारे सिवा मेरा है ही कौन?’’
‘‘अरे हाँ,’’ ताई को अचानक कुछ याद आया, ‘‘मुझे इस लीपा-पोती में थोड़ा समय लगेगा। तुम ज़रा बुद्धन दद्दा से थोड़े-से दिये और एक डबुलिया ले आओ। पैसे आले पर रखे हैं। उठा लो।’’
हरचरन चुप खड़ा रहा। पर उसके चेहरे पर खीझ का भाव उभर आया।
ताई ने उसकी ओर देखा नहीं पर मन का भाव समझ गईं और हँसकर बोलीं, ‘‘अरे सुन लेना बेचारे की दो बातें। अकेले परानी हैं। कोई मिलता नहीं बतियाने को क्या करें बेचारे?’’
‘‘बात सुनने में कोई बुराई थोड़े है, ताई। पर उनकी बात भी तो हरखू की पगड़ी की तरह पंद्रह गज़ की होती है। कोई कितना सबर करे।’’
मन मारकर हरचरन बाहर चलने को मुड़ा तो उसका पैर अचानक किसी चीज़ से टकरा गया।
‘‘ताई, आँगन में बीचों-बीच यह ठीया काहे बना दिया?’’
‘‘कोई नई बात है जो पूछ रहे हो? गोदन थापना है कि नहीं?’’
ताई की बात सुनते हुए वह बाहर आ गया। पर बाहर आते-आते उसकी नज़र बैल के ऊपर पड़ी। उसके पिछले पुट्ठे पर कीचड़ जमकर सूख गया था। उसने एक लकड़ी से खुरचकर छुड़ाना शुरू कर दिया। ताई की नज़र पड़ी तो बोलीं, ‘‘अब काहे फालतू वक़्त गँवा रहे हो? कल सुबह नरबदा मैया में नहलाने तो ले ही जाओगे।’’
‘‘हाँ, पर सोचा कि तुम्हारा साफ-सुथरा दुआरा फिर से गंदा न हो इसलिए---’’ कहता हुआ हरचरन निकल गया।
दीवाली वाले दिन हरचरन बड़े सवेरे मवेशियों को हाँकता हुआ हुआ नदी किनारे ले गया। उन्हें बड़ी देर तक पूरे मन से मल-मलकर नहलाया। फिर उन्हें छोड़कर रतेवा लेने चला गया। रतेवा यानी साफ-सुथरी और अच्छे कि़स्म की घास। रतेवा लाकर उसने नदी के पानी में धोया। उसकी मिट्टी बह गई तो उसे लेकर मवेशियों को हाँकता हुआ चल पड़ा।
ताई ने आँगन के बीचो-बीच गोबर का एक पिंड गोदन बनाकर रख दिया था। त्योहार का दिन उनके लिए और दिनों से अलग नहीं था। हाँ, बस आज के दिन काम थोड़ा बढ़ गया था।
रात को लक्ष्मी की पूजा करके दिए सब जगह दिये जलाकर रख दिए। डबुलिया में तेल भरकर देहरी पर रखना शुभ माना जाता था। पर ताई के पास इतने पैसे नहीं थे कि डबुलिया भरकर तेल रख पातीं। उन्होंने आधी डबुलिया भरकर देहरी पर रख दी। हरचरन दिये जला आया तो बोला, ‘‘ताई अब, गाय-बैलों का भी पूजन कर लिया जाए तो फुरसत हो जाए।’’
‘‘हाँ, पर थोड़ा दूर से। गाएँ तो सीधी हैं, पर रात में बैल के पास के पास कोई जाए तो भड़कता है।’’ ताई ने कहा।
मवेशियों का पूजन करने के बाद वे लौट रहे थे तो हरचरन ने कहा, ‘‘ताई, इस बार मैं भी मौनिया बनूँगा।’’
‘‘मौनिया और तुम?’’ ताई अचरज से बोलीं, ‘‘अपनी सेहत देखी है?’’
‘‘पर क्या करें, ताई? बैल पर ऐसी ढीठ समाई है कि हाड़ की ठठरी बनकर रह गया है। गाएँ भी अक्सर बीमार पड़ती रहती हैं। इसीलिए उनकी रक्षा के लिए सोचा इस बार मौनिया बन ही जाऊँ।’’
‘‘पर बेटा,’’ ताई चिंतित स्वर में बोलीं, ‘‘पूरा दिन उपवास रखकर दौड़ते हुए बारह गाँवों का मेढ़ा मजियाना तुमसे हो पाएगा?’’
‘‘सब हो जाएगा ताई,’’ हरचरन लंबी साँस भरकर बोला, ‘‘गाय-बैल सुरक्षित रहे तो हम भी सुरक्षित रहेंगे। नहीं तो हमारी और आजीविका भी क्या है?’’
दीवाली के दूसरे दिन परमा को हरचरन ने घर में घुसते ही आवाज़ लगाई, ‘‘ताई, देवथान, चल रही हो कि नहीं? सब मौनिया वहीं इकट्ठे हो रहे हैं।’’
‘‘हाँ, साथ ही चलूँगी, बस गोदन पसारकर पूजा कर लूँ। ज़रा लपककर हार से कुछ उड़द के पौधे और सैर-बैठका की पत्तियाँ ले आओ।’’
ताई आँगन में बैठी गोबर के पिंड के हाथ-पैर, मुँह और अन्य अंग बना रही थीं। गोवर्द्धन का वह प्रतीक अब अपने मूर्त रूप में परिवर्तित हो रहा था।
लौटकर हरचरन ने डबुलिया का तेल सिर में मला और ताई के साथ देवथान चल पड़ा।
पीपल के नीचे बड़ी भीड़ थी। हँसी-चुहल हो रहा था। हरचरन को देखते ही संपत उसे एक किनारे ले जाकर बोला, ‘‘हम लोग बड़ी देर से तुम्हारा ही इंतज़ार कर रहे थे। चलो फटाफट बज्झी की बगिया निकल चलते हैं।’’
‘‘काहे--?’’ हरचरन चौंककर बोला, ‘‘सब लोग तो यहीं हैं। वहाँ जाकर क्या करेंगे?’’
‘‘तुम मूरख ही रहोगे?’’ संपत खीझता हुआ बोला, ‘‘वहाँ चलकर पत्ते फेटेंगे और क्या करेंगे?’’
‘‘नहीं भैया, यह सब हमसे न हो पाएगा।’’
हरचरन चलने को हुआ, पर संपत ने उसका हाथ खींच लिया और बोला, ‘‘इसमें ग़लत क्या है? कहते हैं अगर जीत गए तो साल भर लक्ष्मी मैया की कृपा बनी रहेगी।’’
‘‘जो मौनिया बनना चाहते हों, यहाँ इकट्ठे हो जाएँ।’’ पंडित देवीदीन आवाज़ लगा रहे थे। पीपल के नीचे परदनी (धोती) पहने, हाथों में मोरपंख का मुठिया थामे और बरकसी (मवेशियों के बालों से बनी रस्सी) डाले मौनिये नाच रहे थे। टिमकी, ढोलकी और मजीरे की आवाज़ से सबके पैर थिरकने को बेताब हो रहे थे। रामविलास का स्वर अच्छा था। उसने सुर उठाया-
हे ..... (जय हो)
परथम सुमिरौ गनपति प्यारे
कर चरनन में ध्यान रे....
(अरे) दुख हरन मंगल करन
फिर काज सँवारे वारे रे ...
(जय हो)

हरचरन अपना हाथ छुड़ाकर दौड़ पड़ा। ताई, जो अब तक संपत को उसके कान में फुसफुसाते देखकर शंकित हो रही थीं, उनके हृदय को संतोष मिला। वह संपत के स्वभाव से अच्छी तरह परिचित थीं।
हरचरन भी पास पहुँचकर सबके सुर में सुर मिलाकर गाने लगा--
‘‘मनमोहन हिरदे बसो,
रूप रस के घन स्याम रे
 अरे नंद बाबा के लाड़ले भैया,
सो बारंबार बनावैं रे.....
पंडित देवीदीन सब मौनियों को चेताते हुए बोले, ‘‘देखो, अच्छी तरह जान लो। दिन भर उपवास रहना है। और मौन रहकर दौड़ते हुए बारह गाँवों की हद छूकर सूरज अस्त होने से पहले यहीं वापस लौटना है। बीच में न कहीं रुकना है, न बैठना है। अगर व्रत टूटा तो समझ लो, फल उलट जाएगा।’’
मौनियों ने देवी माँ का जयकारा लगाकर अपनी हामी भरी।
पंडित जी अपनी सजी बनी गाय की रस्सी थमकर खड़े हो गए और बोले, ‘‘चलो, अब एक-एक करके गाय के नीचे से निकलकर उसके कान में कूका देते हुए निकलो। दक्षिणा हाथ में पकड़ते जाओ। बिना दक्षिणा दिए निकले तो व्रत का फल नहीं मिलेगा।’’
मौनिये एक-एक करके निकलने लगे। हरचरन की बारी आई तो उसने गाय के नीचे से निकल कूका दिया और पंडित जी के हाथ में पाँच का मुडा़-तुड़ा नोट थमा दिया। पंडित जी ने बड़ी उपेक्षा से उसकी ओर देखा और धमकाने के अंदाज़ में बोले, ‘‘बारह गाँवों का मेढ़ा मजियाए बिना मत लौटना, समझ गए, बारह गाँवों का।’’ और फिर ज़ोर से बोले, ‘‘बोलो--देवी मैया की...’’
जन समूह ने ज़ोर से चिल्लाकर कहा, ‘‘जय...’’
भुलई कायस्थ का लड़का झाँसी में रहकर पढ़ता था। दीवाली के मौके पर वह भी गाँव आया हुआ था। वह बड़ी देर से सब कुछ देख रहा था। उसकी निगाहों में सबके लिए व्यंग्य और उपेक्षा भरी हुई थी। उसने कहा, ‘‘पता नहीं कब सुधरेंगे गाँव के लोग? भला इस सबसे कुछ होता है? मवेशियों की सुरक्षा करनी है तो उनकी देखभाल करो। अच्छा खिलाओ-पिलाओ। बीमार पड़ें तो हरहा डॉक्टर को दिखाओ। इन चोंचलों से भला कुछ मिलने वाला?’’
कहा तो उसने धीरे से था, पर बग़ल में बैठी ताई ने सुन लिया। वह लंबी साँस लेकर बोलीं, ‘‘बेटा, सच कहा। सचमुच कुछ नहीं होता इससे। जानवरों को साँप-बिच्छू काट ले तो वह भी देवी का शाप नहीं बल्कि अपनी लापरवाही का नतीजा होता है। पर बेटा यह वे लोग कह सकते हैं जिनके पास पैसों की लाठी है। उनकी आशंकाओं को पैसे की ताक़त दूर कर देती है। हमारे पास इस उम्मीद के सिवा कुछ नहीं है कि हमारे इस व्रत से देवी प्रसन्न हो जाएँगी और साल भर हमारे मवेशियों की सुरक्षा करेंगी। हमारे पास पैसा ही होता तो हरचरन बारह गाँवों की धूल फाँकने न जाता। हम लोग हर पल आशंका में जीते हैं। अनहोनी का डर हमारे सीने पर सवार रहता है। जिनके पास पैसा है वह अनहोनी से निपटने की हिम्मत रखते हैं। पर हमारे पास देवी कृपा की आस के अलावा क्या है? हम इसी आस के सहारे साल भर जी लेते हैं।’’
लड़के को ताई की बात समझ में नहीं आई या उसने समझने की कोशिश नहीं की और उठकर चला गया।
संपत को एक शरारत सूझ रही थी। हरचरन से वह पहले से चिढ़ा हुआ था क्योंकि उसके बिना खेल नहीं जम पा रहा था। उसने अपने दोस्तों को बुलाकर कहा, ‘‘देखो, सब मौनिये खजुरिहा ख़ुर्द से होकर निकलेंगे। गाँव से पहले ही बरगद का घना पेड़ है। हम लोग उस पर चढ़कर बैठ जाएँगे। जैसे ही हरचरन वहाँ से निकले कि सब लोग चिल्लाते हुए कूद पडेंगे। डर के मारे उसकी चीख़ निकली कि उसका व्रत टूट जाएगा। फिर उसे बज्झी की बगिया में घसीट ले चलेंगे।’’
पर संपत की चाह पूरी नहीं हुई। जब तक उसकी मंडली खुजरिहा तक पहुँचती मौनियों की टोली वहाँ से निकल चुकी थी।
हरचरन दिन भर दौड़ता रहा। मौनियों के साथ गाँवों की सीमा पर पहुँचता। उसकी मिट्टी छूता और निकल पड़ता। नंगे पैर दौड़ने से पैरों में छाले पड़ गए थे। पिंडलियाँ कस गई थीं। चेहरे पर बदहवासी छा गई थी। पर रुक सकने का तो सवाल ही नहीं था। वह दौड़ता रहा-दौड़ता रहा।
धीरे-धीरे साँझ घिर आई। सूरज मसूर की दाल की तरह लाल होकर क्षितिज पर झुक आया। गाँव की लीक पर धूल उड़ाते हुए मौनिये वापस लौटने लगे। एक-एक मौनिया आता और गाय के नीचे से निकलकर उसके कान में कूका देकर व्रत तोड़ता। हरचरन सबसे अंत में पहुँचा। सब मौनिये इकट्ठा हुए तो फिर से टिमकी और मजीरा बजने लगा। थकन भूलकर सब फिर से नाचने लगे।
हरचरन घर पहुँचा तो ताई लपककर उसके लिए गर्म दूध लाने भीतर चली गईं। पर जब वे दूध लेकर लौटीं, हरचरन वहीं छप्पर के नीचे लुढ़क गया था। ताई की आँखें भीग गईं। उन्होंने उसका सिर उठाकर अपनी गोद में रख लिया और भर्राई आवाज़ में गाने लगीं-
झूलें नंदलाल झुलाओ सखी पालना
झूलें नन्दलाल....


Wednesday 5 September 2018

मास्टर छोटेलाल

गर्मी अपने यौवन पर थी। सूरज से जैसे आग बरस रही थी। लू के थपेड़ों से धरती तवा बनी हुई थी। धूल के बवंडर रह-रहकर आसमान को मटमैला कर देते थे। शहर की ओर जानेवाली सड़क पर दूर-दूर तक सन्नाटा छाया हुआ था। 
मास्टर छोटेलाल पाकड़ के पेड़ के नीचे खड़े बस का इंतज़ार कर रहे थे। उन्होंने चेहरे को अँगोछे से इस तरह ढँक रखा था, कि सिर्फ मोटे लेंसवाला चश्मा ही नज़र आ रहा था। पर इसके बाद भी उन्हें दूर से पहचाना जा सकता था। छोटा क़द, थुलथुल शरीर, मोटी-सी गर्दन, मटकी जैसा सिर और शरीर पर मटमैला धोती-कुर्ता। 
मास्टर छोटेलाल क़स्बे के हाईस्कूल में हिंदी के अध्यापक थे। सच्चे और सीधे। चालाकी और होशियारी से उनका दूर का नाता था। पूरी लगन से पढ़ाते। दूसरों की मदद के लिए ख़ुद का नुकसान उठाने को भी तैयार रहते। पर इन अच्छाइयों के बावजूद समाज में उनका वही स्थान था जो आज के ज़माने में सीधे और सच्चे इंसान का होता है। 
एक महिला और उसके छोटे बच्चे के सिवा बस पकड़नेवालों में और कोई नहीं था। बच्चा मुश्किल से पाँच बरस का था। उसे देखकर मास्टर छोटेलाल का हृदय बार-बार पुलक रहा था। वह उस बच्चे की ओर देखे जा रहे थे। पर महिला उन्हें अजनबी समझकर बातचीत करने के प्रति उपेक्षा दिखा रही थी। 
तभी मास्टर छोटेलाल को सड़क पर हो-हल्ला सुनाई दिया। देखा तो चार लड़के बीच सड़क पर एक-दूसरे को छेड़ते और हँसी-हंगामा करते चले आ रहे थे। उन पर न तो लू-धूप का असर था और न तपती हुई सड़क का। वे मौसम को ठेंगा दिखाते हुए अपने आप में मस्त थे। मास्टर जी को लड़कों की थोड़ी फिक्र तो हुई, पर उन्हें अच्छा भी लगा कि कोई तो है जो इन विपरीत परिस्थितियों में गुलमोहर की तरह जीवन का उल्लास बिखेर रहा है। 
लड़कों के पास आने पर मास्टर छोटेलाल को लगा कि उनकी सूरत कुछ जानी-पहचानी लग रही है। थोड़ा और पास आए तो उन्होंने बीचवाले लड़के को पहचान लिया_ वह लोकेश था। वही लोकेश जिसके लिए वे पूरे स्कूल की आँख का काँटा बन गए थे। लोकेश के शरारती स्वभाव से परिचित प्राचार्य जी उसे स्कूल में प्रवेश नहीं देना चाहते थे। पर मास्टर छोटेलाल अड़ गए थे। उनका मानना था कि जो शिक्षा बालक को अनुशासित और आज्ञकारी न बना सके, वह व्यर्थ है। वह हमेशा मानते आए थे कि बच्चा कितना भी उद्दंड क्यों न हो, उसके हृदय में कहीं निश्छलता सोई होती है। शिक्षक का दायित्व है कि वह उस निश्छलता को जागृत करे। उन्होंने लोकेश के प्रवेश को एक चुनौती की तरह स्वीकारा था।
पर लोकेश भी अपने आप में अकेला नमूना था। उसकी उद्दंडताओं का पार नहीं था। क्या छात्र, क्या अध्यापक, हर कोई उसकी शरारातों से परेशान रहता था। मास्टर छोटेलाल उसे बेहद समझाते। पर वह तो चिकना घड़ा था। सबसे ज़्यादा तंग तो वह उन्हें ही करता था। उनकी कक्षा बड़ी मुश्किल से चल पाती थी। किंतु मास्टर छोटेलाल को विश्वास था कि एक न एक दिन वे लोकेश को सुधारकर ही दम लेंगे। 
आज इतने दिनों बाद उसे देखकर मास्टर जी का मन एकाएक उमगा कि उसे रोककर बातें करें। पर जिस तरह से वह हंगामा कर रहा था, उनकी हिम्मत न पड़ी। रोकने के लिए उनका हाथ उठा ही रह गया। लड़के चिल्लाते-ठहाके लगाते पास से निकले तो एक ने लोकेश के कान में फुसफुसाकर कहा, ‘‘पीछे गुरू जी खड़े थे।’’
लोकेश ने घूमकर उचटती-सी निगाह डाली और कंधे उचकाकर लापरवाही से बोला, ‘‘होंगे। उससे क्या?’’ और उसी तरह हंगामा करता हुआ आगे बढ़ गया। 
मास्टर जी का दिल बैठ गया। लोकेश के लिए उन्होंने क्या-क्या नहीं झेला था। साथी अध्यापकों की उलाहनाएँ, प्राचार्य जी की नाराज़गी। पर वह हमेशा लोकेश के पक्ष में खड़े रहे थे। हाईस्कूल पास करने के बाद जब वह पैर छूकर ग़लतियों की माफी माँगते हुए गया था, तो उन्हें लगा था कि देर से सही, पर उनकी मेहनत सफल हो गई। पर आज लोकेश को फिर उसी रूप में देखकर उन्हें बहुत पीड़ा हुई। उनका दिल बैठने लगा। 
तभी धूल उड़ाती हुई बस आकर ठहर गई। मास्टर छोटेलाल एकाएक सब भूल गए और थैला संभालकर चढ़ने का उपक्रम करने लगे। बस पूरी भरी हुई थी। इस मार्ग पर वैसे भी बसें कम थीं। और जो आती थीं, वह खचाखच भरी होती थीं। मास्टर जी ने सीट की तलाश में नाउम्मीदी भरी नज़र दौड़ाई। पर आज उनकी कि़स्मत अच्छी थी। पीछे की तरफ खिड़की के पासवाली एक सीट ख़ाली थी। मास्टर छोटेलाल बच्चों की तरह ख़ुश हो गए। बस हो या ट्रेन आज भी वह खिड़की के बग़लवाली सीट पर बैठने का लोभ नहीं छोड़ पाते थे। अपना थैला उठाकर संतुलन बनाते हुए वह जैसे ही आगे बढ़े कि एकाएक सामने की सीट पर बैठा एक युवक उठ खड़ा हुआ। उसने लपककर पैर छुए। मास्टर छोटेलाल एकाएक ठिठक गए। उनके चेहरे का तनाव ढीला पड़ गया। अभी थोड़ी देर पहले लोकेश के कारण पैदा हुई मन की कड़वाहट एकाएक घुल गई। युवक ने कहा, ‘‘गुरू जी आप यहाँ बैठ जाइए।’’ यह कहकर वह प्रतिक्रिया देखे बिना लपकता हुआ खिड़की के बग़लवाली सीट पर पर जा बैठा। सब कुछ इतना जल्दी घटित हुआ कि मास्टर छोटेलाल एकाएक समझ न सके। बस में खिड़की के पासवाली सीट मिलती कब है? कोई न कोई पहले से जमा रहता है। और कभी मिल भी जाए तो जी मिचलाने या धूम्रपान करने का बहाना करके बग़लवाला उनकी सीट हड़प लेता था। आज उन्हें मौका मिला था। पर वह मौका उनके अपने ही शिष्य ने छीन लिया। 
मास्टर छोटेलाल निराश होकर वहीं बैठ गए। उस सीट पर दो भारी-भरकम सवारियाँ पहले से मौजूद थीं। मास्टर जी भी हल्के-फुल्के न थे। बड़ी मुश्किल से उन्होंने ख़ुद को टिकाया। बस जब धचका लेती या मोड़ पर घूमती तो वह सीट से सरकते-सरकते बचते। 
मास्टर छोटेलाल का चेहरा दुख और क्रोध से विकृत हो रहा था। उन्होंने पूरा जीवन छात्रें को निस्वार्थ भाव से पढ़ाने और जीवन-मूल्य विकसित करने में लगा दिया था। पर आज जैसे वह अपने आपको ठगा-सा महसूस कर रहे थे। 
तभी बस रुकी। युवक का गंतव्य आ गया था। वह उतर रहा था। उसने एक बार फिर आकर उनके पैर छुए और नमस्ते करके उतर गया। मास्टर छोटेलाल ने वितृष्णा से नज़रें फेर लीं। पहली बार ऐसा हुआ था कि पैर छूने पर उन्होंने किसी को आशीर्वाद न दिया हो।
बस चल पड़ी। मास्टर छोटेलाल ने यूँ ही बिना किसी उद्देश्य के पीछे की ओर निगाह डाली। युवक के उतरने के बाद खिड़कीवाली सीट अब ख़ाली हो गई थी। अब तक कोई उस पर बैठा नहीं था। उनका मन खिड़कीवाली सीट पाने के लिए फिर हुमसने लगा। उन्होंने थैला संभाला और चलती बस में भरसक संतुलन बनाते हुए उस सीट की ओर लपक चले। लेकिन सीट पर ‘धप्प’ से बैठते ही वह बिलबिला गए क्योंकि सीट पत्थर की तरह सख़्त थी। उसका गद्दा फटा हुआ था और नीचे सिर्फ लकड़ी थी, जिसमें हल्की-हल्की कीलें उभरी हुई थीं। उस पर बैठना सज़ा काटने जैसा था। मास्टर छोटेलाल की हालत देखने लायक़ हो गई। अब वह अपनी पुरानी सीट पर भी नहीं जा सकते थे क्योंकि वहाँ एक महिला ने क़ब्ज़ा जमा लिया था। मजबूर होकर उठ खड़े हुए और बीच रास्ते में रॉड पकड़कर खड़े हो गए। 
बस ऊबड़-खाबड़ रास्तों पर हिचकोले खाते बढ़ी जा रही थी। मगर अब उन्हें कोई दुख न था।

Thursday 30 August 2018

बड़े भुलक्कड़ दादा जी


बिन्नू के दादा जी को भूलने की बड़ी बीमारी है। दादी उनसे सेब लाने को कहती हैं और वे संतरे ले आते हैं। दादी टोकती हैं तो हँसकर कहते हैं-‘‘इस बार संतरों से काम चला लो, सेब अगली बार ला दूँगा।
---और जब अगली बार जाते हैं तो अमरूद उठा लाते हैं।
उनकी इस आदत से परेशान होकर दादी ने एक उपाय ढूँढा है। जब वह उन्हें बाज़ार भेजती हैं तो डायरी में सारा सामान लिख देती हैं। दादा जी जो सामान ख़रीदते हैं, उस पर निशान लगा लेते हैं।
एक दिन बिन्नू ने दादा जी से कहा, ‘‘दादा जी, मुझे कॉपी और पेंसिल चाहिए। क्या आप मेरे साथ बाज़ार चलेंगे?’’

दादा जी को घूमने में बड़ा मज़ा आता है। वह फौरन तैयार हो गए।
लेकिन गेट तक पहुँचते-पहुँचते वह ठहर गए। उन्होंने कहा, ‘‘मैं जल्दबाज़ी में चप्पल पहनकर निकल आया। तुम यहीं रुको मैं जूते पहनकर आता हूँ।’’
यह कहकर दादा जी अंदर चले गए। पर जब उन्हें काफी देर हो गई तो बिन्नू ने आवाज़ लगाई, ‘‘दादा जी, क्या मैं आकर कुछ मदद करुँ?’’
अंदर से दादा जी की परेशान-सी आवाज़ आई, ‘‘नहीं ऐसी तो कोई ज़रूरत नहीं, पर मैं यह भूल गया कि कमरे में क्या ढूँढने आया था?’’
बिन्नू हँस पड़ा। उसने जाकर दादा जी को जूते पहनाए और साथ लेकर चल पड़ा।
लेकिन गेट तक पहुँचकर दादा जी फिर ठिठक गए।
‘‘अब क्या हुआ?’’ बिन्नू ने पूछा।
‘‘जूते तो पहन लिए, पर अपना चश्मा वहीं रख आया।’’
दादा जी दोबारा अंदर चले गए। बिन्नू ने उबासी लेकर सोचा, अब फिर से पंद्रह मिनट लग जाएँगे।
पर दादा जी ने ज़्यादा देर नहीं लगाई। वे लौट आए। आँखों पर चश्मा चढ़ाए हुए। बिन्नू ख़ुश हो गया।
पर दादा जी संतुष्ट नहीं दिख रहे थे। वह अब भी किसी चिंता में थे।
‘‘चश्मा तो मिल गया न?’’ बिन्नू ने पूछा।
‘‘हाँ, चश्मा तो ले लिया, पर लग रहा है अब भी कुछ छूट रहा है।’’
‘‘ओह--हो, मैं बताता हूँ, आप क्या भूल रहे हैं,’’ बिन्नू हँसकर बोला, ‘‘आपने छड़ी कमरे में ही छोड़ दी है।’’
‘‘हाँ--हाँ, तभी तो कहूँ कि मुझे चलने में परेशानी क्यों हो रही है,’’ दादा जी पोपले मुँह से हँसते हुए बोले।
दादा जी ने लौटकर छड़ी ली और चल पड़े। पर अभी दो क़दम भी नहीं चले होंगे कि उन्हें फिर कुछ याद आया।
‘‘अब क्या--?’’ बिन्नू ऊबकर बोला।
‘‘अरे पेन और डायरी तो ले लूँ। तुम्हारी दादी ने जो सामान मँगाया है वह भी लेता आऊँगा।’’
दादा जी अपने कमरे में फिर लौट गए। बिन्नू गेट पर खड़ा होकर आने-जानेवालों को देखने लगा। तभी उसका दोस्त सलीम उधर आ निकला। उसके पास रिमोट से चलनेवाली कार थी। उसके अंकल आज ही दिल्ली से लेकर आए थे।
दोनों लॉन में बैठकर खेलने लगे। रिमोट के बटन दबाने पर कार जूँ-जूँकरके भागती और टकराने पर ख़ुद अपना रास्ता बदल देती। यह देखकर दोनों को बड़ा मज़ा आ रहा था। खेलते-खेलते उन्हें काफी देर हो गई।
तभी दादा जी हड़बड़ाए हुए बाहर आए और बोले, ‘‘मुझे पेन और डायरी मिल गई। चलो, बाज़ार चलते हैं।’’
बिन्नू तो बाज़ार जाने की बात भूल ही गया था। उसने सलीम से विदा ली और दादा जी के साथ चल पड़ा।
बाज़ार में ख़ूब चहल-पहल़ थी। लोग ख़रीदारी करने में जुटे हुए थे। वे एक-दूसरे से बेख़बर इधर-उधर आ-जा रहे थे। जैसे उन्हें किसी की फिक्र न हो।
दादा जी ने एक दूकान पर पहुँचकर बिन्नू के लिए कॉपी-पेंसिल और इरेज़र ख़रीदा। अपने लिए एक पेन और गुटका रामायण ली। पर जब पैसे देने की बारी आई तो वे किसी सोच में पड़ गए।
‘‘अब क्या हुआ?’’ बिन्नू ने पूछा।
‘‘बटुआ तो घर ही भूल आया--’’
बिन्नू ज़ोर से हँस पड़ा। उसके साथ दादा जी भी हँस पड़े।
 बिन्नू गाने लगा-
अक्कड़-बक्कड़ बड़े भुलक्कड़
मेरे  प्यारे   दादा  जी,
हमको  टॉफी  दिलवाने  का
रखते याद न वादा जी।
लेने  जाते  हैं  जब  सब्ज़ी
ले आते  हैं  दही-बड़े,
छड़ी  सुलाते  हैं बिस्तर पर
ख़ुद सो जाते खड़े-खड़े।


झेलम के तट पर


     रात का पहला पहर। झेलम का विस्तृत तट घने अंधकार में विलीन होकर भयावह हो रहा था। बादल घिरे होने के कारण अंधकार गाढ़ा होकर झुका आता-सा लगता था। हवा एकदम ठप थी। पूरे वातावरण में एक आशंका-सी तैर रही थी। बादलों का गर्जन जैसे किसी अनिष्ट की घोषणा करता हुआ-सा लग रहा था। बिजली रह-रहकर किसी तलवार की भाँति लपलपाती हुई आसमान के इस छोर से उस छोर तक खिंच जाती थी।
      इस क्षणिक प्रकाश में सैन्य-स्कंधावार के द्वार पर एक योद्धा की झलक एकाएक दिख जाती थी। ऊँचा मस्तक, दृढ़ निश्चय से भरी आँखे, सिर पर चौड़े किनारों वाली टोपी, कमर से लटकती तलवार और पैरों में ऊँचे जूते--मानो किसी विजय-अभियान के लिए तत्पर खड़ा हो। क्षणिक प्रकाश में अपना अस्तित्व प्रकट करके वह पुनः उसी अँधकार का अंग बन जाता था। द्वार पर खड़ा वह बड़ी देर से जाने किस आत्मचिंतन में डूबा हुआ था।
      व्यवधान के लिए क्षमा करें, सम्राट,” तभी सैनिक वेश में एक व्यक्ति निकट आकर बोला, “इतनी देर से आप किस चिंता में मग्न है?”
      कौन....? सेनापति टालेमी,” वह जैसे नींद से जागा।
      हाँ, विश्वविजेता सम्राट सिकंदर,” टालेमी अभिवादन में झुकता हुआ बोला, “सुरक्षा की दृष्टि से इस अंधकार में आपका अकेले खड़ा होना उचित नहीं है।
      तुम्हारी चिंता स्वाभाविक है, सेनापति। किंतु मेरा चित्त स्थिर नहीं है। आज जैसा संशय और ऊहापोह मेरे मस्तिष्क में चल रहा है वैसा फारस (ईरान) के विशाल सम्राज्य को जीतने में भी नहीं हुआ।
      कैसा संशय सम्राट?”
      सिकंदर ने लंबी साँस खींची। थोड़ी देर चुप रहा। फिर जैसे अपने आप से कहने लगा, “तक्षशिला के राजा आम्भीक ने बिना किसी शर्त समर्पण कर दिया है। मैं यह सोचकर प्रसन्न हुआ कि उसने मेरी शक्ति के आगे सिर झुका दिया। पर सच्चाई यह नहीं है। वास्तव में वह पोरस की बढ़ती शक्ति से आक्रान्त होकर मेरी सहायता चाहता है। उसने पाँच हजार भारतीयों की सेना भी सहायतार्थ भेजी है।
      तो फिर संशय कैसा, सम्राट? यह स्थिति तो हमारे लिए और भी अनुकूल है। हमारी संयुक्त शक्ति के आगे पोरस तत्काल नतमस्तक हो जाएगा।
      मैने भी यही सोचा था। पर यह देखो...,” सिकंदर के हाथ में एक संदेश झूल रहा था, “आत्मसमर्पण के प्रस्ताव के उत्तर में उसने लिखा है कि इसका निर्णय रणक्षेत्र में होगा।
      लगता है भगवान जीयस हम पर कृपालु हैं,” टालेमी के चेहरे पर मुस्कान चमक उठी, “वीरों के लिए युद्ध से बढ़कर कोई उत्सव नहीं होता। मालूम होता है जल्द ही हमारी तलवारों की प्यास बुझेगी।

      सच कहते हो सेनापति, किंतु न जाने क्यों मेरे मन में संशय है.....
      तभी जोरदार गर्जन हुआ और आसमान झरने लगा। हवा थपेड़े ले-लेकर बहने लगी। झेलम के जल में उठने वाली ऊँची-ऊँची लहरें आपस में टकराकर भयानक शोर उत्पन्न करने लगी। इसी बीच स्कंधावार से ढोल-नगाड़ों और गीत-नृत्य की ध्वनि आने लगी। बादलों के गर्जन-तर्जन के बीच ढोल-नगाड़ों की ध्वनि वातावरण में एक आशंकापूर्ण भय की सृष्टि करने लगी।
       इससे पहले कि सिकंदर और टालेमी कुछ समझते, पर्डिक्कस लगभग दौड़ता हुआ उधर आया।
      सम्राट, आप यहाँ हैं, मैं शिविर में ढूँढकर थक गया,” पर्डिक्कस हाँफ रहा था।
      किंतु ये शोरगुल कैसा है? किसने आज्ञा दी इस नाच-रंग की,” सिकंदर की भौहें टेढ़ी होने लगीं।
      क्षमा करें सम्राट, मैंने,” पर्डिक्कस झुकता हुआ बोला, “यही रणनीति है। झेलम के उस पार पोरस की सेना समझेगी कि गरमी और उमस से त्रस्त यवन सैनिक उल्लास और उत्सव में डूबे हुए हैं और इस बीच हम अपना काम कर गुज़रेंगे। यहाँ से सोलह मील दूर हमने एक ऐसे स्थान का पता लगा लिया है, जहाँ झेलम का पानी उथला है। इस गर्जन-तर्जन के बीच हमारी सेना उस पार उतर जायेगी और किसी को खबर भी नहीं होगी। हमारे ग्यारह हजार चुने हुए सैनिकों की टुकड़ी आपके आदेश की प्रतीक्षा कर रही है।
      पर्डिक्कस, हमें तुम्हारी योग्यता पर पूरा भरोसा है। सिंधु नदी पर पुल बाँधने में तुमने और हेफस्तियान ने जिस कुशलता का परिचय दिया था, उससे मेरा विश्वास और दृढ़ हुआ है। लेकिन........
      लेकिन क्या सम्राट.............पर्डिक्कस चौंका।
      सिकंदर कुछ कहने को हुआ, पर एकाएक चुप हो गया। घनघोर वर्षा में भीगती तीनों मूर्तियों के बीच कुछ पलों के लिए निस्तब्धता छा गई। सिर्फ बूंदों की तड़तड़ाहट, झेलम की लहरों का संघात और ढोल-नगाड़ों की आवाज़ गूँजती रही।
      मैं आपकी मनः स्थिति समझ सकता हूँ, सम्राट,” एकाएक पर्डिक्कस ने जैसे कुछ समझते हुए कहा, “यह कार्य युद्ध नीति के प्रतिकूल है, लेकिन युद्ध में विजय महत्वपूर्ण होती है, नियम और नीति नहीं। संसार सिर्फ विजेता को याद रखता है, हारने वाले की ईमानदारी, सत्यनिष्ठा, वीरता सब भुला दी जाती है।
      लेकिन पार्डिक्कस, मैं कैसे इस अभियान की आज्ञा दूँ। तुम्हें याद होगा..........सिकंदर के नेत्र शून्य की ओर उठ गए, “ईरान के सम्राट डेरियस से युद्ध के समय भी सबने यही सलाह दी थी कि हमारी सेना रात्रि के अंधकार में आक्रमण करे, क्योंकि दिन के प्रकाश में उसकी विशाल सेना देखकर हमारे सैनिक भयभीत हो सकते थे। लेकिन मैंने ऐसा नहीं किया; क्योंकि यह युद्ध-नीति के प्रतिकूल था। अंततः भगवान जीयस हमारे साथ रहे। हमने विजय प्राप्त की।
      पर्डिक्कस का सिर झुक गया। कुछ क्षण सभी मौन रहे।
      तभी टालेमी आगे बढ़कर आया और बोला, “लेकिन सम्राट, वर्षा के कारण बढ़ी हुई झेलम और उससे भी अधिक प्रबल पोरस की सेना का सामना करके उस पार उतरना इन परिस्थितियों में असंभव है। यह आप जैसे अनुभवी योद्धा को बताने की आवश्यकता नहीं।
      हाँ सम्राट,” पर्डिक्कस बोला, “अगर इस अभियान में विजय प्राप्त नहीं हुई, तो अब तक अर्जित सारी कीर्ति धुल जाएगी!
      और सम्राट का विश्वविजेता बनने का स्वप्न चूर-चूर हो जाएगा!
      संसार जीयस के पुत्र का उपहास करेगा!
      सिकंदर मौन हो रहा। उसका मौन ही उसकी स्वीकृति का संकेत थी।
      पर्डिक्कस और टालेमी अभियान की तैयारियाँ करने चले गए। सिकंदर अकेला खड़ा रह गया। स्कंधावार से उठती ढोल-नगाड़ों की ध्वनि पूरे वातावरण पर छा गई। अँधेरा जैसे कुछ और गाढ़ा हो गया था।
      बादलों के घोर गर्जन और रह-रहकर तड़पती बिजलियों के बीच सिकंदर की ग्यारह हजार कुशल एवं प्रशिक्षित सैनिकों की टुकड़ी झेलम के उस पार उतर गई।
      पोरस के स्कंधावार पर तैनात व्याधों के कुत्ते तट पर होती हलचल का अनुमान कर भौंकने लगे। ऊँघ रहे व्याध सजग हो उठे। उन्होंने मशालें जलाकर तूर्य बजाना आरंभ कर दिया। सोए हुए सैनिक हड़बड़ाकर उठ बैठे और अपने अस्त्र-शस्त्र सहेजने लगे।
      उस समय स्कंधावार में पोरस के पुत्र राजकुमार पौरव के नेतृत्व में मात्र दो हजार सैनिक और एक सौ बीस रथ मौजूद थे। निश्चित रूप से यह संख्या अपर्याप्त थी। किंतु राजकुमार घबराया नहीं। उसने सैनिकों को एकत्रित करके कहा, “भारतीय वीर युद्ध के लिए हर समय प्रस्तुत रहता है। हम संख्या में कम अवश्य हैं, किंतु शत्रु की ईंट से ईंट बजा देने के लिए पर्याप्त हैं। हम रण में अपना सिर कटा देंगे; किंतु पीछे नहीं हटेंगे।
      सैनिकों ने गगनभेदी उद्घोष किया और अपनी तलवारें संभालकर युद्ध के लिए तैयार हो गए।
      थोड़ी ही देर में झेलम के तट पर घमासान युद्ध आंरभ हो गया। बीस वर्षीय राजकुमार ने सिंकदर की अनुभवी और अपेक्षाकृत विशाल सेना का डटकर मुकाबला किया। भारतीय वीरों ने अपनी तलवार के जौहर से सिकंदर का आत्मविश्वास डिगा दिया। उसका प्रिय घोड़ा बुकाफेलस भी इस युद्ध में मारा गया। यह घोड़ा उसे बहुत प्रिय था। इसके बल पर उसने जाने कितने युद्ध जीते थे। यह उसके लिए अपूर्णनीय क्षति थी।

      लेकिन युद्ध का परिणाम तो पहले से तय था। कहाँ ग्यारह हजार दुर्दांत सैनिक और कहाँ दो हजार भारतीय वीर। राजकुमार सैनिकों सहित लड़कर वीरगति को प्राप्त हुआ। अंततः यवन-सेना ने अपनी विजय-ध्वजा गाड़ दी।
      पोरस तक सूचना पहुँची तो वह क्रोध से हुंकार उठा। तलवार खींचकर गरजता हुआ बोला, “विश्वासघाती सिकंदर, तूने भले ही संसार को पराजित किया होगा, पर आज तुझे भारतीयों की वीरता का स्वाद चखना होगा। मैं इस भूमि की सौगंध खाकर कहता हूँ कि तेरी विश्वविजय का स्वप्न चूर-चूर कर दूँगा।
      महाराज......तभी घबराए हुए सेनापति ने प्रवेश किया, “अभी-अभी सूचना मिली है कि अभिसार के राजा ने हमारी सहायता से इंकार कर दिया है।
      और मगध के महाराज नंद ने?”
      वे उदासीन हैं। उन्होंने हमारी बातचीत का कोई उत्तर नहीं दिया है। इसे उनका इंकार ही समझिए। राजा आम्भीक और शशिगुप्त तो प्रकट रूप से यवन-सम्राट के साथ हैं।
      इससे कोई फर्क नहीं पड़ता, सेनापति। युद्ध सदैव अपने भुजबल से लड़ा जाता है। जाओ, युद्ध की तैयारी करो।
      कुछ ही समय पश्चात कर्री के रणक्षेत्र में दोनों सेनाएँ आमने-सामने खड़ी थीं। पोरस की 50 हज़ार पैदल, 3 हज़ार अश्वारोही, 1300 रथ और 130 हाथियों की सेना देखकर सिकंदर दहल गया। कुछ पलों के लिए उसका विश्वास डोल गया।
      पोरस की व्यूह-रचना भी अनोखी थी। उसने सामने हाथियों को खड़ा कर दिया था, जबकि अगल-बगल व पीछे पैदल सेना थी। दोनों पार्श्वों में अश्वारोही और उनके सामने रथ खड़े थे।
      थोड़ी ही देर में घमासान युद्ध आरंभ हो गया। योद्धाओं की हुंकारों और कराहों से आकाश गूँज उठा। हाथियों के दौड़ने से भूमि ऐसे डोल उठी मानो भूचाल आ गया हो। मैदान रक्त से लाल हो उठा।
      किंतु आज भाग्य सचमुच सिकंदर के साथ था। पोरस को जिन रथों और धनुर्धरों पर पूरा भरोसा था आज वे असफल सिद्ध हो रहे थे। बारिश से हुए कीचड़ और दलदल में रथों के पहिए बार-बार धँस जा रहे थे। पोरस के धनुर्धरों से शत्रु-सेना सदैव भयभीत रहती थी। मनुष्य के बराबर ऊँचाई वाले धनुष और तीन गज लंबे नाराचों (लोहे के बाणों) को रोक पाना शत्रु की सामर्थ्य के बाहर होता था। धनुर्धर धनुष का एक सिरा पैरों से दबाकर प्रत्यंचा खींचकर बाण छोड़ते थे। किंतु आज बारिश के कारण उनके धनुष स्थिर नहीं हो पा रहे थे और लक्ष्य से भटक जा रहे थे।
      सिकंदर के धूर्त मस्तिष्क ने इस अवसर का लाभ उठाते हुए हाथियों की सेना को अपना लक्ष्य बनाया। उसके धनुर्धर उनकी आँखों को लक्ष्यकर बाण छोड़ने लगे। कुछ दुस्साहसी सैनिक निकट जाकर फरसों से हाथियों के पैरों पर वार करने लगे। इससे हाथी भड़क कर भागने लगे और अपनी ही सेना को कुचलने लगे। पोरस की सेना त्रस्त हो गईं। चारों तरफ भगदड़ मच गई।
      किंतु पोरस अपने हाथी पर सवार पूरी शक्ति से युद्ध करता रहा। अपनी सेना के तितर-बितर हो जाने पर भी वह पूरे आत्मविश्वास के साथ युद्ध-भूमि में डटा हुआ था। सिकंदर हतप्रभ था। उसने ऐसा असाधारण वीर अपने जीवन में नहीं देखा था।
      बहुत देर तक युद्ध करने के पश्चात अंततः पोरस मूर्च्छित होकर हाथी से गिर पड़ा और बंदी बना लिया गया।
      बेड़ियों में जकड़कर उसे सिकंदर के सामने प्रस्तुत किया गया। लम्बा-चौड़ा शरीर, उन्नत ललाट, आत्मविश्वास से दीप्त आँखें...... लगता था किसी शेर को विवश कर बेड़ियों में जकड़ दिया गया हो। एक हारे हुए राजा की भाँति उसमें न तो दीनता थी और न ही भय। अपितु भरी सभा में वह शत्रुओं के सम्मुख तना हुआ खड़ा था।
      पोरस,” सिकंदर ने कहा, “तुम पराजित हो चुके हो।
      पोरस कुछ नहीं बोला, पर उसकी आँखों में जैसे आग भभक उठी।
      लेकिन मैं वीरता का सम्मान करता हूँ,” सिकंदर आगे बोला, “तुम वीर हो और तुम्हें तुम्हारा अधिकार मिलना ही चाहिए। माँगो, आज दानी सिकंदर ह्रदय खोलकर बैठा है। जो चाहो माँग लो।
      हः ......पोरस उपेक्षा से हँसा, “जो अकिंचन संसार को लूटकर अपना कोष भरने चला हो, वह भला किसी को क्या दे सकता है?”
      दे सकता है, बहुत कुछ दे सकता है,” सिकंदर के चेहरे का रंग बदलने लगा, “तुम्हें तुम्हारा राज्य दे सकता है........ तुम्हें जीवन की भीख दे सकता है !
      अपमान भरे जीवन से गौरवपूर्ण मृत्यु भली है, यवन सम्राट। इसके लिए मैं प्रस्तुत हूँपोरस ने छाती तान कर कहा। उसकी आँखों में जरा भी भय नहीं था।
      तुम बहुत दुस्साहसी हो, पोरस। तुम्हें भय नहीं लगता ?”
      भय....... इस शब्द से हम भारतीयों का अपरिचय है, सम्राट। हम कायरों की तरह बार-बार नहीं मरते। जब तक जीते हैं गर्व के साथ जीते हैं।
      तुम्हें पता है, तुम्हारे जैसे पराजित राजा के साथ मुझे कैसा व्यवहार करना चाहिए?” सिकंदर ने पूछा।
      हाँ, जैसा एक राजा दूसरे राजा के साथ करता है।
      पोरस की वीरता और साहस से सिकंदर हतप्रभ था। आज वह जीतकर भी खुद को हारा हुआ महसूस कर रहा था। पोरस की आँखों से आँखें मिलाने की हिम्मत उसमें न थी। आत्मग्लानि से उसका सिर झुक गया।

      इस भारतीय वीर से सामना होने के पश्चात सिकंदर और उसकी सेना को आगे बढ़ने की हिम्मत न पड़ी। पोरस का राज्य वापस करके वह वापस लौट गया। इस तरह एक विश्व विजेता का विजय-अभियान थम गया।