Thursday, 8 November 2018

दिवारी


मसूर की दाल जैसा सूरज जब साँझ को पेड़ों के पीछे उतरने लगता है तो उसमें न गरमी रह जाती है, न रोशनी। यही समय होता है जब हरचरन अपने मवेशियों को हाँकता हुआ गाँव वापस लौट चलता है। उसके पास एक बैल है और दो गाएँ। तीनों मवेशी सुंदरा ताई के हैं। ताई उसकी कोई नहीं, पर अपनों से बढ़कर हैं। ताई अकेली हैं और हरचरन के आगे-पीछे भी कोई नहीं। ताई उसे अपना बेटा मानती हैं, और वह उन्हें अपनी माँ।
‘‘ताई, ओ ताई कहाँ हो?’’ हरचरन ने दरवाज़े पहुँचकर पुकारा।
‘‘यहाँ हूँ, बच्चा,’’ अंदर से ताई का जवाब आया।
हरचरन ने पैर पटककर साफ किए और अंदर दाखि़ल हो गया। लीपा-पोता आँगन देखते ही उसके मुँह से अनायास ही निकल पड़ा, ‘‘अरे वाह ताई, बाहर पूरा गाँव सुरमई हो रहा है, पर तुम्हारे आँगन में तो जैसे सूरज उतर आया है।’’
छुई मिट्टी से लीपने के बाद आँगन सचमुच चमक उठा था।
‘‘क्या करें, बेटा, रज्जन परधान की तरह घर पर रंग तो लगवा नहीं सकते, सोचा लीप ही दें।’’ ताई दोनों हाथ मिट्टी में साने पल भर को रुककर बोलीं, ‘‘चौमासे के बाद काई-फफूँद से सारा घर हबूड़ा हो रहा था। कल दीवाली है। सोचा कुछ साफ-सफाई कर लें।’’
‘‘अरे ताई कितना काम करती हो इस उम्र में। बता दिया होता तो मैं ही निपटा देता।’’ हरचरन अपराधी भाव से बोला।
‘‘नहीं, बेटा, कुछ काम ख़ुद ही करना अच्छा रहता है। और वैसे भी तुमसे कितना काम लें? ख़ाली कब रहते हो? दिन भर तो खटते रहते हो।’’
‘‘अरे ताई, मैं कोई पराया हूँ जो मुझसे कहने में अहसान लगेगा। तुम्हारे सिवा मेरा है ही कौन?’’
‘‘अरे हाँ,’’ ताई को अचानक कुछ याद आया, ‘‘मुझे इस लीपा-पोती में थोड़ा समय लगेगा। तुम ज़रा बुद्धन दद्दा से थोड़े-से दिये और एक डबुलिया ले आओ। पैसे आले पर रखे हैं। उठा लो।’’
हरचरन चुप खड़ा रहा। पर उसके चेहरे पर खीझ का भाव उभर आया।
ताई ने उसकी ओर देखा नहीं पर मन का भाव समझ गईं और हँसकर बोलीं, ‘‘अरे सुन लेना बेचारे की दो बातें। अकेले परानी हैं। कोई मिलता नहीं बतियाने को क्या करें बेचारे?’’
‘‘बात सुनने में कोई बुराई थोड़े है, ताई। पर उनकी बात भी तो हरखू की पगड़ी की तरह पंद्रह गज़ की होती है। कोई कितना सबर करे।’’
मन मारकर हरचरन बाहर चलने को मुड़ा तो उसका पैर अचानक किसी चीज़ से टकरा गया।
‘‘ताई, आँगन में बीचों-बीच यह ठीया काहे बना दिया?’’
‘‘कोई नई बात है जो पूछ रहे हो? गोदन थापना है कि नहीं?’’
ताई की बात सुनते हुए वह बाहर आ गया। पर बाहर आते-आते उसकी नज़र बैल के ऊपर पड़ी। उसके पिछले पुट्ठे पर कीचड़ जमकर सूख गया था। उसने एक लकड़ी से खुरचकर छुड़ाना शुरू कर दिया। ताई की नज़र पड़ी तो बोलीं, ‘‘अब काहे फालतू वक़्त गँवा रहे हो? कल सुबह नरबदा मैया में नहलाने तो ले ही जाओगे।’’
‘‘हाँ, पर सोचा कि तुम्हारा साफ-सुथरा दुआरा फिर से गंदा न हो इसलिए---’’ कहता हुआ हरचरन निकल गया।
दीवाली वाले दिन हरचरन बड़े सवेरे मवेशियों को हाँकता हुआ हुआ नदी किनारे ले गया। उन्हें बड़ी देर तक पूरे मन से मल-मलकर नहलाया। फिर उन्हें छोड़कर रतेवा लेने चला गया। रतेवा यानी साफ-सुथरी और अच्छे कि़स्म की घास। रतेवा लाकर उसने नदी के पानी में धोया। उसकी मिट्टी बह गई तो उसे लेकर मवेशियों को हाँकता हुआ चल पड़ा।
ताई ने आँगन के बीचो-बीच गोबर का एक पिंड गोदन बनाकर रख दिया था। त्योहार का दिन उनके लिए और दिनों से अलग नहीं था। हाँ, बस आज के दिन काम थोड़ा बढ़ गया था।
रात को लक्ष्मी की पूजा करके दिए सब जगह दिये जलाकर रख दिए। डबुलिया में तेल भरकर देहरी पर रखना शुभ माना जाता था। पर ताई के पास इतने पैसे नहीं थे कि डबुलिया भरकर तेल रख पातीं। उन्होंने आधी डबुलिया भरकर देहरी पर रख दी। हरचरन दिये जला आया तो बोला, ‘‘ताई अब, गाय-बैलों का भी पूजन कर लिया जाए तो फुरसत हो जाए।’’
‘‘हाँ, पर थोड़ा दूर से। गाएँ तो सीधी हैं, पर रात में बैल के पास के पास कोई जाए तो भड़कता है।’’ ताई ने कहा।
मवेशियों का पूजन करने के बाद वे लौट रहे थे तो हरचरन ने कहा, ‘‘ताई, इस बार मैं भी मौनिया बनूँगा।’’
‘‘मौनिया और तुम?’’ ताई अचरज से बोलीं, ‘‘अपनी सेहत देखी है?’’
‘‘पर क्या करें, ताई? बैल पर ऐसी ढीठ समाई है कि हाड़ की ठठरी बनकर रह गया है। गाएँ भी अक्सर बीमार पड़ती रहती हैं। इसीलिए उनकी रक्षा के लिए सोचा इस बार मौनिया बन ही जाऊँ।’’
‘‘पर बेटा,’’ ताई चिंतित स्वर में बोलीं, ‘‘पूरा दिन उपवास रखकर दौड़ते हुए बारह गाँवों का मेढ़ा मजियाना तुमसे हो पाएगा?’’
‘‘सब हो जाएगा ताई,’’ हरचरन लंबी साँस भरकर बोला, ‘‘गाय-बैल सुरक्षित रहे तो हम भी सुरक्षित रहेंगे। नहीं तो हमारी और आजीविका भी क्या है?’’
दीवाली के दूसरे दिन परमा को हरचरन ने घर में घुसते ही आवाज़ लगाई, ‘‘ताई, देवथान, चल रही हो कि नहीं? सब मौनिया वहीं इकट्ठे हो रहे हैं।’’
‘‘हाँ, साथ ही चलूँगी, बस गोदन पसारकर पूजा कर लूँ। ज़रा लपककर हार से कुछ उड़द के पौधे और सैर-बैठका की पत्तियाँ ले आओ।’’
ताई आँगन में बैठी गोबर के पिंड के हाथ-पैर, मुँह और अन्य अंग बना रही थीं। गोवर्द्धन का वह प्रतीक अब अपने मूर्त रूप में परिवर्तित हो रहा था।
लौटकर हरचरन ने डबुलिया का तेल सिर में मला और ताई के साथ देवथान चल पड़ा।
पीपल के नीचे बड़ी भीड़ थी। हँसी-चुहल हो रहा था। हरचरन को देखते ही संपत उसे एक किनारे ले जाकर बोला, ‘‘हम लोग बड़ी देर से तुम्हारा ही इंतज़ार कर रहे थे। चलो फटाफट बज्झी की बगिया निकल चलते हैं।’’
‘‘काहे--?’’ हरचरन चौंककर बोला, ‘‘सब लोग तो यहीं हैं। वहाँ जाकर क्या करेंगे?’’
‘‘तुम मूरख ही रहोगे?’’ संपत खीझता हुआ बोला, ‘‘वहाँ चलकर पत्ते फेटेंगे और क्या करेंगे?’’
‘‘नहीं भैया, यह सब हमसे न हो पाएगा।’’
हरचरन चलने को हुआ, पर संपत ने उसका हाथ खींच लिया और बोला, ‘‘इसमें ग़लत क्या है? कहते हैं अगर जीत गए तो साल भर लक्ष्मी मैया की कृपा बनी रहेगी।’’
‘‘जो मौनिया बनना चाहते हों, यहाँ इकट्ठे हो जाएँ।’’ पंडित देवीदीन आवाज़ लगा रहे थे। पीपल के नीचे परदनी (धोती) पहने, हाथों में मोरपंख का मुठिया थामे और बरकसी (मवेशियों के बालों से बनी रस्सी) डाले मौनिये नाच रहे थे। टिमकी, ढोलकी और मजीरे की आवाज़ से सबके पैर थिरकने को बेताब हो रहे थे। रामविलास का स्वर अच्छा था। उसने सुर उठाया-
हे ..... (जय हो)
परथम सुमिरौ गनपति प्यारे
कर चरनन में ध्यान रे....
(अरे) दुख हरन मंगल करन
फिर काज सँवारे वारे रे ...
(जय हो)

हरचरन अपना हाथ छुड़ाकर दौड़ पड़ा। ताई, जो अब तक संपत को उसके कान में फुसफुसाते देखकर शंकित हो रही थीं, उनके हृदय को संतोष मिला। वह संपत के स्वभाव से अच्छी तरह परिचित थीं।
हरचरन भी पास पहुँचकर सबके सुर में सुर मिलाकर गाने लगा--
‘‘मनमोहन हिरदे बसो,
रूप रस के घन स्याम रे
 अरे नंद बाबा के लाड़ले भैया,
सो बारंबार बनावैं रे.....
पंडित देवीदीन सब मौनियों को चेताते हुए बोले, ‘‘देखो, अच्छी तरह जान लो। दिन भर उपवास रहना है। और मौन रहकर दौड़ते हुए बारह गाँवों की हद छूकर सूरज अस्त होने से पहले यहीं वापस लौटना है। बीच में न कहीं रुकना है, न बैठना है। अगर व्रत टूटा तो समझ लो, फल उलट जाएगा।’’
मौनियों ने देवी माँ का जयकारा लगाकर अपनी हामी भरी।
पंडित जी अपनी सजी बनी गाय की रस्सी थमकर खड़े हो गए और बोले, ‘‘चलो, अब एक-एक करके गाय के नीचे से निकलकर उसके कान में कूका देते हुए निकलो। दक्षिणा हाथ में पकड़ते जाओ। बिना दक्षिणा दिए निकले तो व्रत का फल नहीं मिलेगा।’’
मौनिये एक-एक करके निकलने लगे। हरचरन की बारी आई तो उसने गाय के नीचे से निकल कूका दिया और पंडित जी के हाथ में पाँच का मुडा़-तुड़ा नोट थमा दिया। पंडित जी ने बड़ी उपेक्षा से उसकी ओर देखा और धमकाने के अंदाज़ में बोले, ‘‘बारह गाँवों का मेढ़ा मजियाए बिना मत लौटना, समझ गए, बारह गाँवों का।’’ और फिर ज़ोर से बोले, ‘‘बोलो--देवी मैया की...’’
जन समूह ने ज़ोर से चिल्लाकर कहा, ‘‘जय...’’
भुलई कायस्थ का लड़का झाँसी में रहकर पढ़ता था। दीवाली के मौके पर वह भी गाँव आया हुआ था। वह बड़ी देर से सब कुछ देख रहा था। उसकी निगाहों में सबके लिए व्यंग्य और उपेक्षा भरी हुई थी। उसने कहा, ‘‘पता नहीं कब सुधरेंगे गाँव के लोग? भला इस सबसे कुछ होता है? मवेशियों की सुरक्षा करनी है तो उनकी देखभाल करो। अच्छा खिलाओ-पिलाओ। बीमार पड़ें तो हरहा डॉक्टर को दिखाओ। इन चोंचलों से भला कुछ मिलने वाला?’’
कहा तो उसने धीरे से था, पर बग़ल में बैठी ताई ने सुन लिया। वह लंबी साँस लेकर बोलीं, ‘‘बेटा, सच कहा। सचमुच कुछ नहीं होता इससे। जानवरों को साँप-बिच्छू काट ले तो वह भी देवी का शाप नहीं बल्कि अपनी लापरवाही का नतीजा होता है। पर बेटा यह वे लोग कह सकते हैं जिनके पास पैसों की लाठी है। उनकी आशंकाओं को पैसे की ताक़त दूर कर देती है। हमारे पास इस उम्मीद के सिवा कुछ नहीं है कि हमारे इस व्रत से देवी प्रसन्न हो जाएँगी और साल भर हमारे मवेशियों की सुरक्षा करेंगी। हमारे पास पैसा ही होता तो हरचरन बारह गाँवों की धूल फाँकने न जाता। हम लोग हर पल आशंका में जीते हैं। अनहोनी का डर हमारे सीने पर सवार रहता है। जिनके पास पैसा है वह अनहोनी से निपटने की हिम्मत रखते हैं। पर हमारे पास देवी कृपा की आस के अलावा क्या है? हम इसी आस के सहारे साल भर जी लेते हैं।’’
लड़के को ताई की बात समझ में नहीं आई या उसने समझने की कोशिश नहीं की और उठकर चला गया।
संपत को एक शरारत सूझ रही थी। हरचरन से वह पहले से चिढ़ा हुआ था क्योंकि उसके बिना खेल नहीं जम पा रहा था। उसने अपने दोस्तों को बुलाकर कहा, ‘‘देखो, सब मौनिये खजुरिहा ख़ुर्द से होकर निकलेंगे। गाँव से पहले ही बरगद का घना पेड़ है। हम लोग उस पर चढ़कर बैठ जाएँगे। जैसे ही हरचरन वहाँ से निकले कि सब लोग चिल्लाते हुए कूद पडेंगे। डर के मारे उसकी चीख़ निकली कि उसका व्रत टूट जाएगा। फिर उसे बज्झी की बगिया में घसीट ले चलेंगे।’’
पर संपत की चाह पूरी नहीं हुई। जब तक उसकी मंडली खुजरिहा तक पहुँचती मौनियों की टोली वहाँ से निकल चुकी थी।
हरचरन दिन भर दौड़ता रहा। मौनियों के साथ गाँवों की सीमा पर पहुँचता। उसकी मिट्टी छूता और निकल पड़ता। नंगे पैर दौड़ने से पैरों में छाले पड़ गए थे। पिंडलियाँ कस गई थीं। चेहरे पर बदहवासी छा गई थी। पर रुक सकने का तो सवाल ही नहीं था। वह दौड़ता रहा-दौड़ता रहा।
धीरे-धीरे साँझ घिर आई। सूरज मसूर की दाल की तरह लाल होकर क्षितिज पर झुक आया। गाँव की लीक पर धूल उड़ाते हुए मौनिये वापस लौटने लगे। एक-एक मौनिया आता और गाय के नीचे से निकलकर उसके कान में कूका देकर व्रत तोड़ता। हरचरन सबसे अंत में पहुँचा। सब मौनिये इकट्ठा हुए तो फिर से टिमकी और मजीरा बजने लगा। थकन भूलकर सब फिर से नाचने लगे।
हरचरन घर पहुँचा तो ताई लपककर उसके लिए गर्म दूध लाने भीतर चली गईं। पर जब वे दूध लेकर लौटीं, हरचरन वहीं छप्पर के नीचे लुढ़क गया था। ताई की आँखें भीग गईं। उन्होंने उसका सिर उठाकर अपनी गोद में रख लिया और भर्राई आवाज़ में गाने लगीं-
झूलें नंदलाल झुलाओ सखी पालना
झूलें नन्दलाल....


4 comments:

  1. बहुत बढ़िया सर। हरचरन का लुढ़कना बहुत खास है। काश सबको यह बात समझ मे आये।

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    1. धन्यवाद, रामकरन भाई

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  2. बहुत सुंदर भाषा-शैली में लिखी गई बहुत सुंदर कहानी! अधिक समय नहीं मिल पाता पढ़ने के लिए, पर आज ठान लिया था कि आपकी यह कहानी ज़रूर पढ़ूँँगा! उम्मीद से बढ़कर बढ़िया निकली!

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    1. उत्साहवर्द्धन के धन्यवाद रवि भाई

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