बाहर सारी प्रकृति जैसे
अद्भुत उल्लास में डूबी हुई थी। सरसों के खेतों में फैली पीली चादर फरवाई से
डोल-डोल जाती थी। गेहूँ और जौ के खेतों से गुज़रती हवा खनखनाकर हँस पड़ती थी। सूरज
की सुनहरी रोशनी में सारी प्रकृति जैसे दोगुनी सुंदरता के साथ चमक उठी थी। तालाब का
साफ पानी नहाकर आए बालक की तरह हवा से सिहर रहा था। आसमान ऐसा नीला था जैसे किसी
ने धूल खाए दर्पण को पोछ दिया हो।
तभी ‘गुटरगूँ’ की
आवाज़ पर उन्होंने आँगन की दीवार की ओर नज़र दौड़ाई। एक जंगली कबूतर बड़े सुकून से
अपने पंख सँवार रहा था। सूरज की किरणों में उसका नीला रंग अद्भुत आभा बिखेर रहा
था। पर तभी आँगन में सरोजिनी चावल फटकने आ गई। उसने चावल का टोकरा रखा और सूप के
लिए कोठरी में चली गई। पर जाते-जाते वह कबूतर को उड़ाना नहीं भूली। सरोजिनी उनकी
छोटी बहन थी। इकलौती और दुलारी बहन। बहन के अलावा कौन था ही उनका। प्लेग के रोग
में माँ-बाप बहुत पहले उन्हें छोड़कर जा चुके थे। सरोजिनी को उन्होंने बेटी की तरह
पाला। जवान हुई तो अपनी सामर्थ्य से बढ़कर उसकी शादी की। दान-दहेज दिया। पर शायद
नियति को कुछ और मंज़ूर था। सरोजिनी को संतान नहीं हुई। पति ने पहले तो इलाज
करवाया। जगह-जगह लेकर घूमा। पर परिवारवालों के ताने सुन-सुनकर वह उसे मायके छोड़
गया। और गया तो ऐसा कि दोबारा लेने नहीं आया। लाख कहलाने और बुलवाने पर भी वह नहीं
पसीजा। अब सरोजिनी उन्हीं के साथ रहती थी। उम्र अधिक नहीं थी, पर बालों का आबनूसी रंग रूखा होते-होते बदरंग हो चला था।
चेहरे की रंगत में हमेशा ओढ़ी हुई एक फिक्र नज़र आने लगी थी। माथे पर दर्द की
सिलवटों ने स्थाई स्थान बना लिया था।
बाबा आज अपने दुख को मन पर
हावी नहीं होने देना चाहते थे। उन्होंने निगाहें उधर से हटानी चाहीं पर तभी दूसरे
कमरे का किवाड़ खुला और उनकी बहू राधा चावल साफ करने का थाल लेकर सरोजिनी के पास
आकर बैठ गई। उसकी सफेद साड़ी पर निगाह जाते ही उन्हें लगा जैसे सतरंगी दुनिया पर
सफेदी की एक परत चढ़ गई हो। बाबा का हृदय कराह उठा। उन्होंने व्याकुल होकर करवट बदल
ली। आँखों के कोर भीग गए।
यही तो दिन थे। सर्दियाँ बीत
चुकी थीं। फसलें कट चुकी थीं। एकलौती संतान, उनका बेटा प्राह्लाद गबरू जवान हो गया था। बड़े मुश्किलों से उसे पाला था।
माँ इलाज के अभाव में पैदा होते ही उसे छोड़ गई थी। वहीं उसके माँ थे और वही बाप।
लोग कहते हैं कि बिना माँ की संतान बिगड़ैल हो जाती है, पर प्राह्लाद ऐसा शीलवान और कुशाग्र निकला था कि लोग उनके
भाग्य पर ईर्ष्या करते। जैसे शीत से लुटी हुई सावन की हरियाली को बसंत का इंतज़ार
रहता है,
उसी तरह बाबा अपने अभाव भरे जीवन में ख़ुशियों का इंतज़ार रहे
थे।
एकाएक उनकी आँखों के सामने
प्राह्लाद के विवाह का दृश्य घूम गया। पूरा घर सजा हुआ था। महिलाएँ ढोल बजाकर मंगल
गीत गा रही थीं। हास-परिहास और चुहलबाज़ी से वातावरण चहक रहा था। बच्चे इधर से उधर
दौड़कर सारा घर भरे हुए थे। बारात वाले दिन तो ख़ूब नाच-रंग हुआ था। लोगों ने उन्हें
भी नचा दिया था। सचमुच इतने दिनों के बाद वह खुलकर जीवन का आनंद ले पाए थे। उन्हें
लगा था कि दुखों और परेशानियों के दिन अब पूरे हुए।
पर उनके भाग्य में सुख की
प्रतीक्षा का अंत अभी नहीं हुआ था। विवाह को अभी वर्ष भर भी नहीं बीता था कि
प्राह्लाद को मलेरिया ने ग्रस लिया। ख़ुशियों का दीपक नियति की हवाओं से जैसे फफककर
बुझ गया।
यादों के सागर में दर्द का
ज्वार ऐसा बढ़ा कि बाबा छाती पकड़कर उठ बैठे। एकाएक उन्हें इस तरह उठकर बैठते देख
आँगन में सूप फटकने की आवाज़ थम गई।
‘‘मेरा इकतारा कहाँ गया?’’ वह अटकते-अटकते बोले। अपना ध्यान बटाने के लिए वह कभी-कभी
इकतारा बजाया करते थे।
राधा किसी बुत की तरह चुपचाप
उठकर आई। दीवार की खूँटी पर निगाह डाली। खूँटी ख़ाली थी।
‘‘भारती ले गई होगी। आजकल
उसे भी सीखने का शौक चढ़ा है।’’ कहकर
उन्होंने हँसने की कोशिश की।
राधा जैसे आई थी वैसे ही लौट
गई।
भारती यानी उनकी पोती, राधा की बेटी। चंचल और नटखट। जब प्राह्लाद उसे छोड़कर गया था, तब वह मुश्किल से साल भर की थी। अब वह जीवन के आठ बसंत पूरे
कर चुकी थी। रंग-रूप में वह परिवार से बिल्कुल अलग थी। न प्राह्लाद गोरा था, न राधा। पर भारती एकदम कच्चे नारियल जैसी सफेद थी। नाक-नक्श
तो उनके परिवार में सबका ठीक-ठाक था। पर भारती एकदम परी लगती थी। व्यवहार भी भगवान
ने ऐसा दिया था कि दिन भर घर-चौबारे में हँसी के उजले गुलाब खिलाया करती थी।
बुद्धि ऐसी थी कि लोग वाह-वाह करते। अपने शहद-सुरीले कंठ से जब वह ‘श्री रामचंद्र कृपालु भजु मन हरण भव भय दारुणम्।
नव कंज-लोचन कंज-मुख कर-कंज पद-कंजारुणम्।।’
गाती तो लगता कोयल कुहुक रही
हो।
बाबा ने निगाहें दौड़ाईं।
धुँधली निगाहों के बावजूद वह देख सकते थे कि सरसों के पीले आसमान में भारती किसी
तितली की तरह अटखेलियाँ कर रही थी। उसके खुले हुए बाल लहरा रहे थे। उदासी भरे
संसार से बेफिक्र वह किसी पतंग की तरह उन्मुक्त मँडरा रही थी। जाने अमराई में कोयल
कुहुक रही थी या वह गा रही थी?
बाबा ने दोनों हाथों से सिर
थाम लिया। सिर में गोल-गोल कुछ घूम रहा था। उनकी उम्र बढ़ती जा रही थी। बाल कास की
तरह सफेद हो चुके थे। आँखों की चमक फीकी पड़ चुकी थी। शरीर शिथिल हो चला था। आख़िर
कब तक वह परिवार की देखभाल करेंगे। सरोजिनी का क्या होगा? राधा क्या करेगी? और भारती...? बाबा सिहर उठे।
‘‘अमाँ, किन ख़्यालों में खोए हो राघो?’’ गाँव की मस्जिद के इमाम साहब थे। बाबा के बचपन के यार।
घर की दहलीज पर पैर रखने से
पहले वह थोड़ी देर खड़े रहे ताकि उनकी आवाज़ सुनकर घर की औरतें परदे की ओट हो जाएँ।
‘‘अरे रहमत भाई, आइये-आइये!’’ बाबा उठकर बैठते हुए बोले।
तब तक राधा ने बढ़कर दरवाज़ा
उढ़का दिया था। इमाम साहब चारपाई में धँसते हुए बोले, ‘‘अमाँ, सारा
गाँव पीला हो रहा है। लड़के पतंगे उड़ाने में मस्त हैं, बूढ़े मगन होकर हुक्का खींच रहे हैं, औरतें नए-नए पकवान बनाने में जुटी हैं; मगर एक तुम हो कि मुँह लटकाए घर पर पड़े हो।’’
‘‘अपना क्या है, मौलवी साहब, अपनी तो बीत गई?’’ बाबा साँस भरकर बोले।
‘‘बीत गई?’’ इमाम साहब ठठाकर हँस पड़े, ‘‘अमाँ, तुम
भी कमाल करते हो। बाहर ज़रा निगाहें तो दौड़ाओ। तितलियाँ फूलों के इंतज़ार में बेकरार
हैं,
कोयल अपना सरगम छेड़ने को बेचैन है। आम के पेड़ों में बौर अभी
फूटे नहीं, भौंरे अभी गुनगुनाए नहीं
और तुम कहते हो बीत गई। अरे जनाब अभी तो ज़िंदगी शुरू हुई है।’’
बाबा चुप रहे कुछ न बोले।
इमाम साहब हमेशा की तरह बोलते
गए,
‘‘आज तो मौसम की रंगत ही अलग है। सूरज की
रोशनी में कैसा सुनहरापन है, आसमान
कैसा साफ है, हवाओं में क्या ताज़गी है, बदन में ऐसी चुस्ती आ गई है कि मन करता है मील दो मील दौड़ा
चला जाऊँ। आज जाने ऐसा क्या है!’’
‘‘आज बसंत पंचमी है,’’ बाबा धीरे से बोले।
‘‘ओह हो, वही तो कहूँ कि पूरा गाँव पीले समंदर में नहाया हुआ क्यों
है?’’
कहते हुए इमाम साहब बाबा की ओर मुड़े और शिकायती लहजे में
कहने लगे,
‘‘लेकिन तुम क्यों मटमैले हुए हुए जा रहे हो? नया न सही पुराना ही पहन लो। अरे वही पीला कुर्ता निकाल लो
जो ....’’
कहते-कहते इमाम साहब ने ज़बान काट ली। कैसा अनर्थ होने जा
रहा था?
वह कहने वाले थे कि वही पीला कुर्ता निकाल लो जो बेटे की
शादी में पहना था। पर फिसलते-फिसलते उन्होंने बात सँभाल ली।
बाबा समझ तो गए पर उन्होंने
बात बदल दी, ‘‘मुख़्तार कहाँ है?’’
इमाम साहब की जान में जान आई
बोले,
‘‘शहर में ही है। अबकी गया था तो साथ आने की
बड़ी ज़िद कर रहा था। पर अब तो इम्तहान आने वाले हैं। यहाँ आया तो खेलकूद में मस्त
हो जाएगा।’’
‘‘आप बड़े पत्थर दिल हैं।
एक नन्हे से बच्चे को अकेला शहर में डाल रखा है। जाने कैसे रहता होगा बेचारा। हम
होते तो अम्मा को याद कर-करके सागर भर चुके होते।’’
‘‘आज की यही सख़्ती जिंदगी
की चिलचिलाती धूप में साया बन जाएगी।’’ कहते-कहते इमाम साहब बनावटी ढंग से चिढ़कर बोले, ‘‘अभी बड़ा हमदर्दी जता रहे हो। जब भारती को पढ़ने भेजोगे, तब पूछूँगा।’’
बाबा का दिल धक् से रह गया।
उनके मुँह से सिर्फ इतना निकला, ‘‘अकेली
लड़की को भला कहाँ भेजूँगा। गाँव रहकर जो पढ़ाई कर ले वही बहुत है।’’
‘‘क्या मतलब?’’ इमाम साहब चौंककर बोले।
‘‘मतलब साफ है, रहमत भाई,’’ बाबा
बोले,
‘‘मुख़्तार लड़का है कहीं आ-जा सकता है। कहीं
रहकर पढ़ सकता है। बिन बाप की बच्ची को किसके भरोसे छोडूँगा शहर में।’’
‘‘उसके ख़ुद के भरोसे और
किसके?’’
इमाम साहब बोले, ‘‘लड़कियों को इतना कमज़ोर क्यों मानते हो, राघो?’’
‘‘रहमत भाई,’’ बाबा लंबी साँस खींचकर बोले, ‘‘मेरी एक बहन है, जिसके पति ने उसे छोड़ दिया है। एक बहू है, जिसका पति गुज़र चुका है। इन दोनों की जिंदगी को मैंने बहुत
क़रीब से देखा है। इनके दुखों का एक-एक अक्षर पढ़ा है। बिना पुरुष के स्त्री इस कठोर
संसार में सुरक्षित नहीं रह सकती। मैं तो भारती को देख-देखकर डरता हूँ। उस नन्हीं
परी का भविष्य क्या होगा? भगवान उसे
मेरे अभिशाप की काली छाया से बचाए।’’
‘‘लेकिन राघो,’’ इमाम साहब हैरत से उन्हें देखते हुए बोले, ‘‘आप तो औरत को शक्ति मानते हैं। राधे-श्याम, सीता-राम, गौरी-शंकर
सबमें देवियों का नाम ही आगे आता है। तुम्हीं ने तो वह कहानी सुनाई थी जिसमें एक
औरत अपने पति को यमराज से भी छुड़ा लाती है। आज तुम्हीं औरत को कमज़ोर साबित करने पर
तुले हुए हो?’’
‘‘रहमत भाई, जीवन जब सच्चाई की पथरीली ज़मीन पर उतरता है तो सारे आदर्श
तार-तार हो जाते हैं। मैं भी कहता हूँ और मानता भी हूँ कि स्त्री किसी भी मामले
में पुरुष से पीछे नहीं है। लेकिन हमारे समाज ने कुछ दूसरी ही व्यवस्थाएँ बना रखी
हैं। हमारी कथनी और करनी में अंतर है। हम किताबों में बड़ी-बड़ी बातें करते हैं, पर स्त्रियों को उनके अधिकार नहीं देते। इस समाज में एक
अकेली स्त्री मगरमच्छों से भरे जौहड़ में बेबस जीव जैसी है।’’
‘‘तुम ग़लत सोचते हो राघो, देखना एक दिन यही भारती, यह नटखट परी तुम्हारी सोच को ग़लत साबित कर देगी। तुम्हारी
ज़िंदगी में मायूसी और बेचारगी का जो काला साया है उसे भारती अपने नूर से मुनव्वर
कर देगी। तुम्हारे ख़ानदान की हँसी-ख़ुशी फिर लौटेगी। ख़ुशियों से रीते पड़े मुरझाए
दिल फिर से हरे-भरे हो उठेंगे। राघो, मैं भारती के चेहरे में उस आने वाले कल की तस्वीर देख रहा
हूँ। हैरत है, उसे तुम महसूस नहीं कर
पा रहे।’’
बाबा कुछ नहीं बोले और सिर
नीचा किए बैठे रहे। मतलब साफ था वह इमाम साहब की बात से सहमत नहीं हो पा रहे थे।
‘‘ख़ैर छोड़ो,’’ बाबा को अपनी बात पर अड़ा देखकर इमाम साहब ने बात बदल दी, ‘‘कुछ और सुनाओ। अपना इकतारा बजाकर बसंत का कोई गीत ही सुना
दो।’’
‘‘इकतारा नहीं है।’’ बाबा बुदबुदाए। उनके ऊपर उदासी किसी बोझ की तरह लदी आ रही
थी।
इमाम साहब ने बात घुमाई, ‘‘यार राघो, ये
बसंत पंचमी आख़िर क्यों मनाते हैं?’’
बाबा फिर भी चुप रहे। इमाम
साहब बाबा का मन भाँपकर बेचैन होने लगे। बाबा ने उनकी परेशानी पढ़ ली। मन न होने पर
भी वह बताने लगे, ‘‘ब्रह्मा ने
जब इस सतरंगी सृष्टि का निर्माण किया तो वे अपने सृजन से बहुत संतुष्ट थे। पर
उन्हें एक बात कचोट रही थी। सुंदर और मनभावन धरती पर मौन छाया हुआ था। एक उदासी-सी
चारों ओर फैली हुई थी। चारों ओर रंग बिरंगे फूल खिले हुए थे। उन पर भौंरे और
तितलियाँ मँडरा रहे थे। नदियाँ मंद-मंथर गति से अपनी मंज़िल तय कर रही थीं। झरने से
छिटकता हुआ जल हरसिंगार के फूलों की तरह बिखर रहा था। सूरज अपनी सुनहरी किरनों से
धरती को सहला रहा था। शीतल हवा प्रकृति को दुलरा रही थी। पर इतनी रमणीयता के बाद
भी धरती पर एक मौन छाया हुआ था। तब ब्रह्मा ने अपने कमंडल से जल लेकर धरती पर
छिड़का। धरती को छूते ही जलकणों में अद्भुत चमत्कार हुआ। एक सुंदर चतुर्भुजी स्त्री
प्रकट हुई जिसके एक हाथ में वीणा थी, एक हाथ में पुस्तक, एक में माला और एक हाथ वर देने की मुद्रा में था। यह
सरस्वती थी, ज्ञान की देवी। ब्रह्मा
के आदेश से उसने वीणा के तारों को झंकृत किया। झंकार होते ही जैसे पूरा संसार
गुनगुना उठा। भौंरे गीत गाने लगे। कोयल कुहुकने लगी। नदी का जल कल-कल कर इठलाने
लगा। झरने का जल शोर करता हुआ चट्टानों पर गिरने लगा। मनुष्य के कंठ से वाणी फूट पड़ी...’’
इमाम साहब के कान तो बाबा की
कहानी सुन रहे थे, पर निगाहें
दूर खेतों की ओर थीं। वह बुदबुदा रहे थे, ‘‘...उसके एक हाथ में वीणा थी और दूसरे हाथ में किताब....’’
बाबा ने इमाम साहब को देखते
देखा तो उनकी निगाहें भी उधर घूम गईं।
दूर खेतों में कोयल कुहुक रही
थी। भारती एक हाथ में उनका इकतारा और दूसरे हाथ में पुस्तक लिए गाती चली आ रही थी-‘‘हवा हूँ, हवा
मैं बसंती हवा हूँ...’’
धरती पर बसंत का आगमन हो गया
था।