Tuesday 7 July 2020

उम्मीद


करामत मियाँ की पाँचवीं औलाद भी लड़की पैदा हुई तो उनका दिल बैठ गया।
दाई बाहर निकलकर आई और बोली, ‘‘बधाई हो भैया, घर में बरकत आई है।’’
करामत मियाँ बुत बने बैठे रहे। 
‘‘अबकी हज़ार रुपए और धोती का जोड़ा लिए बिना न मानूँगी। पिछली बार की तरह नहीं कि डेढ़ सौ पर टरका दिया था। इस बार कोई बहाना नहीं चलेगा।’’ दाई हठ से इठलाती हुई बोली।
मग़रिब की अज़ान अभी-अभी ख़त्म हुई थी। ‘अल्लाहो अकबर’ की ध्वनि हवा में अभी पूरी तरह घुली न थी। बारिश की साँझ का पसीजता हुआ धुँधलका चारों ओर पसर रहा था। करामत मियाँ ने दुआ पढ़कर चेहरे पर हथेलियाँ मलीं और कुछ देर हाथों से चेहरा ढके बैठे रहे, फिर आह-सी भरते हुए बोले, ‘‘बुआ, कम से कम तुम तो जले पर नमक न छिड़को।’’
दाई का स्वर बदल गया--हठ की जगह सहानुभूति उमड़ आई, ‘‘ए भैया, दिल छोटा न करो। लड़का-लड़की तो सब भगवान की इच्छा है। उसकी दया से जच्चा-बच्चा दोनों ठीक हैं। जाकर एक बार देखो तो, बच्ची इतनी सुंदर है कि सारा कलेस दूर हो जाएगा।’’
करामत मियाँ कुछ न बोले। कुर्ते की जेब टटोली, जो भी था दाई के हाथ में रखकर मस्जिद की ओर बढ़ गए। नमाज़ को देर हो रही थी।
करामत मियाँ की बड़ी तमन्ना थी कि उनका एक बेटा होता। लेकिन क़िस्मत ने ऐसा मुँह फेर रखा था कि एक-एक करके पाँच बेटियाँ हो गईं, पर लड़के की आस पूरी न हुई। करामत मियाँ गाँव के ही एक मदरसे में पढ़ाते थे। मामूली-सी तनख़्वाह थी। शहर जाकर दो-चार घरों में बच्चों को अरबी पढ़ाने से भी थोड़े-बहुत पैसे मिल जाते थे। फिर भी ख़र्च पूरा न पड़ता था। 
बीवी बड़ी नेक और सलीके़मंद पाई थी। उनकी सादगी और सलीक़े की हर कोई तारीफ़ करता था। इतनी पर्देदार औरत थीं कि गाँववालों ने सूरत तो दूर, उनकी आवाज़ भी न सुनी थी। बेटियों को भी वैसे ही संस्कार दे रखे थे। करामत मियाँ उन्हें पढ़ने स्कूल नहीं भेजते थे। घर पर ही उर्दू-अरबी पढ़ा दिया करते थे। 
करामत मियाँ ख़ुद भी बड़ी सादगी से रहते थे। न किसी चीज़ का शौक़ था, न लत। जो सामने आ गया, खा लिया, जो मिल गया पहन लिया। कभी कोई ख़्वाहिश नहीं की। ज़रूरत की चीज़ें भी दस बार सोचने के बाद घर में आती थीं। न रेडियो था, न टी.वी.। अख़बार गुमटी पर पढ़ आते थे। इसके बावजूद तंगी का ऐसा आलम था कि महीना ख़त्म होते-होते हाथ ख़ाली हो जाता और क़र्ज़ अपने पैर पसारने लगता। ऐसा नहीं था कि बड़े परिवार की दुश्वारियों से करामत मियाँ अंजान थे, पर एक लड़के की ख़्वाहिश में परिवार बढ़ता जा रहा था, साथ ही ख़र्च और ज़िम्मेदारियों का बोझ भी। 
नमाज़ पढ़कर लौटते वक़्त इमाम साहब ने समझाया, ‘‘अल्लाह की मर्ज़ी पर किसी का बस नहीं चलता, करामत मियाँ। वह जो करता है, उसी में हमारी भलाई होती है। जानते हो हज़रत अली क्या फरमाते थे? कहते थे जब मेरी दुआ क़ुबूल होती है तो मैं बहुत ख़ुश होता हूँ, क्योंकि उसमें मेरी रज़ा होती है। पर जब दुआ क़ुबूल नहीं होती है तो मैं और ज़्यादा ख़ुश होता हूँ क्योंकि इसमें अल्लाह की रज़ा होती है।’’ कहते-कहते इमाम साहब के दोनों हाथ ऊपर उठ गए और होठ बुदबुदा उठे, ‘अल्लाहोअकबर...’
करामत मियाँ एक पल के लिए ख़ामोश रहे फिर कहने लगे, ‘‘समझता हूँ इमाम साहब, इसीलिए तो ख़ुद को बिखरने से बचा पाया हूँ। पर क्या करूँ? इंसानी फ़ितरत पीछा नहीं छोड़ती। कभी-कभी लगता है कि इस दुनिया में बिल्कुल तन्हा हूँ। कोई मेरा हाथ बटानेवाला नहीं। चिलकती धूप में दस किलोमीटर दूर शहर जाता हूँ तो पसीना एड़ियों तक आता है। इमाम साहब, अब उम्र हो आई। मेहनत नहीं हो पाती। काश, अल्लाह की रहमत मेरे लिए कोई सहारा निकालती।’’ करामत मियाँ ने ठंडी साँस भरी। 
‘‘एक बात कहूँ, करामत मियाँ?’’ इमाम साहब ने लंबी सफेद दाढ़ी पर हाथ फेरते हुए बोले, ‘‘अपना समझकर कह रहा हूँ, बुरा मत मानना।’’
करामत मियाँ थोड़ा ठिठके लेकिन फिर होठों पर फीकी मुस्कान लाते हुए बोले, ‘‘बुरा क्या मानना,  इमाम साहब। आप तो बुज़ुर्गवार हैं। जो कहेंगे भले के लिए ही कहेंगे।’’
‘‘दरअसल...’’ इमाम साहब बात शुरू करने के लिए उपयुक्त संदर्भ तलाश रहे थे, ‘‘मैं यह कहना चाहता हूँ कि तुम अपनी लड़कियों को पढ़ाते क्यों नहीं?’’
‘‘जी...?’’ करामत मियाँ एकदम ठिठक गए।
‘‘मेरा मतलब है कि लड़का हो या लड़की उसके लिए दीनी तालीम तो ज़रूरी है, पर दुनियावी तालीम को भी नज़रअंदाज़ नहीं किया जाना चाहिए।’’
करामत मियाँ के चेहरे पर भावों की हलचल थम गई और सूखे होठों पर फिर वही फीकी हँसी आहिस्ता से आ बैठी, ‘‘इमाम साहब, आपको क्या बताना, आप तो आलिम हैं। जानते ही होंगे कि औरत, खाना और पैसा--ये तीनों चीज़ें दुनिया से छिपाकर रखी जाती हैं।’’
इमाम साहब हौले से हँस दिए, ‘‘मैं भी बे-पर्दगी की बात कहाँ कर रहा हूँ? मेरा तो बस इतना मानना है कि लड़का हो या लड़की उसे ऊँची से ऊँची तालीम देनी चाहिए। तालीम इंसान के भीतर ताक़त और हिम्मत भरती है। दुश्वारियों का सामना करने का हौसला पैदा करती है।’’ 
करामत मियाँ को चुप देखकर इमाम साहब आगे कहने लगे, ‘‘फ़रहाना को तो देखा ही होगा? मेरी बेटी। अलीगढ़ में पढ़ती है। उस्ताद उससे इतना ख़ुश रहते हैं कि पूछो मत। अभी परसों ही उसने अपने उस्ताद बात कराई। कह रहे थे इंशाअल्लाह रिसर्च पूरी करते ही वहीं उसकी नौकरी के लिए सिफ़ारिश करेंगे।’’
‘‘माशाअल्लाह...’’ करामत मियाँ बुदबुदाए, ‘‘लेकिन ...फ़रहाना परदेस में अकेली तो नहीं रहती, भाई की सरपरस्ती भी तो है। एक लड़का ही होता तो क्या ग़म था, इमाम साहब?’’ 
‘‘तुम लड़की को इतना कमज़ोर क्यों समझते हो, करामत भाई? तुम्हें क्या लगता है कि लड़की बाहर निकली तो दुनिया का सामना नहीं कर पाएगी? या यह क़दम दीन के खिलाफ़ होगा? या फिर तुम्हें अपनी औलाद और अपनी परवरिश पर भरोसा नहीं? करामत मियाँ, अपने आपको बदलने और नई चीज़ों से जुड़ने की एक झूठी हिचक हमें रोके रखती है। वर्ना, एक बार उससे बाहर आकर तो देखो दुनिया कितनी सुनहरी और आसमान कितना नज़दीक लगने लगता है। रेगिस्तान में बहारें खिल उठती हैं। समंदर इतना छोटा हो जाता है कि मुट्ठी में समा जाए। करामत भाई, मौका लगे तो मेरी बातों पर ज़रूर ग़ौर करना।’’
इमाम साहब का घर आ गया था, वे चले गए। घुप्प अँधेरे में भी उनका सफेद चोग़ा कुछ दूर तक चमकता रहा।
करामत मियाँ जी कड़ा करके घर की ओर बढ़ चले। 
‘‘आ गए, चच्चा?’’ नसीबुन की लड़की रुकैया आहट पाकर बाहर निकल आई, ‘‘आज नमाज़ में बड़ी देर हो गई? चलकर बच्ची के कान में अज़ान दे दीजिए।’’
करामत मियाँ खँखारकर अंदर पहुँचे। नसीबुन ने लड़की उनकी गोद में थमा दी, ‘‘भाईजान, देखिए कितनी ख़ूबसूरत है। अल्लाह करे इसकी आमद से घर में बरकतें नािज़ल हों।’’
‘‘आमीन...!’’ करामत मियाँ बुदबुदाए।
बच्ची के कान में अज़ान सुनाकर उठते ही नसीबुन ने टोका, ‘‘भाभी को कुछ हरारत-सी महसूस हो रही है। ज़रा देख लीजिए। अगर दवा की ज़रूरत हो तो...’’
करामत मियाँ ने हिम्मत जुटाकर बीवी की ओर देखा। चेहरे की रौनक जैसे किसी ने छीन ली थी--पतझर के पत्ते जैसी पीली रंगत, होंठ नीले पड़े हुए, सिर पर चिथड़ा बँधा हुआ। आँखें टिपटिपाकर खुलतीं और कमज़ोरी की वजह से फिर ढल जातीं। करामत मियाँ को माथे पर हाथ रखते देख वह बुदबुदाईं, ‘‘फ़िक्र न... करिए... मैं... ठीक...हूँ..।’’
करामत मियाँ बाहर निकल आए और दरवाज़े पड़ी चारपाई पर बैठ गए। भादों का अँधियारा जवान हो रहा था। आस-पास से झींगुरों, मेंढकों और कीट-पतंगों की जाने कितनी जानी-अनजानी आवाज़ें आ रही थीं। आज करामत मियाँ को अँधेरा अच्छा लग रहा था। उन्हें उन दिनों की याद आने लगी, जब पहली बेटी आयशा पैदा हुई थी। आयशा भी मग़रिब बाद ही पैदा हुई थी। कितना ख़ुश थे वह। पूरा गाँव उनकी ख़ुशी में शरीक़ हुआ था। देर रात तक गैस-बत्ती में दरवाज़े पर लोगों का जमावड़ा लगा रहा था। मीलाद हुआ था और शीरिनी बटी थी। पर आज वह बिल्कुल अकेले थे और अकेले ही रहना चाहते थे। 
‘‘अब्बू, खाना खाएँगे?’’ तभी आयशा ने दरवाज़े के पर्दे की ओट से पूछा। उसे पता था कि वे मग़रिब के फ़ौरन बाद खाना खाते हैं।
करामत मियाँ का ध्यान टूटा। वह हड़बड़ाकर बोले, ‘‘नहीं, अभी नहीं, हकीम साहब के घर से लौटकर खा लूँगा।’’
वे उठे और हकीम साहब के घर की तरफ़ चल पड़े।
आयशा पर्दे की ओट हो गई। उसके सपाट चेहरे से मन में उठनेवाले भावों का पता नहीं पाया जा सकता था। आयशा ही नहीं बाक़ी लड़कियाँ भी इस भाव से रहती थीं जैसे इस घर में उनका अनधिकार प्रवेश हो। मन का बोझ उनके सिर झुकाए रखता था। न कभी किसी चीज़ की ज़िद करती थीं, न आपस में झगड़े। खेल-खिलौनों के बारे में तो सपने में भी नहीं सोचती थीं। पहनने-ओढने के नाम पर ईद में एक बार कपड़े बनते थे। उन्हीं कपड़ों को सहेजकर वे मौकों के लिए रखती थीं। करामत मियाँ अपनी बेटियों को बहुत चाहते थे। लेकिन जाने क्या बात थी कि वे उनसे प्यार के दो बोल न बोल पाते थे। जाने कौन-सी बात थी, जो उन्हें रोके रखती थी।
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वक़्त गुज़रते देर नहीं लगती। करामत मियाँ की छोटी बेटी साल भर की हो गई थी। उसने ठुमक-ठुमककर चलना भी शुरू कर दिया था। दूसरी बेटियों के मुक़ाबले यह ज़्यादा चंचल थी। शोरगुल से दिन भर घर भरा रखती थी। कभी इधर, कभी उधर। कभी यह उठाना, तो कभी वह पटकना। उस नामसझ को शायद नहीं पता था कि लड़के की चाहत रखनेवाले इस घर में उसे कैसे रहना चाहिए।
करामत मियाँ इस बार शहर के एक हकीम से दवा कर रहे थे। टोने-टोटके और झाड़-फूँक से भी अपना बैर समाप्त कर लिया था। जहाँ से कोई उम्मीद दिखाई देती कोई फौरन दौड़ पड़ते। नदी पारवाले गाँव में शहीद पीर बाबा की मज़ार थी। हर साल उर्स होता था और बड़ा मेला लगता था। कहा जाता था कि वहाँ मन्नत मानने से बड़ी-बड़ी मुरादें पूरी हो जातीं हैं। लोग रोते-रोते आते हैं और हँसते-हँसते जाते हैं। हालाँकि करामत मियाँ आज तक किसी मज़ार पर मन्नत मानने न गए थे, पर बेटे की चाहत उन्हें खींच ले गई। हर जुमेरात को वह मज़ार को घने साए में लपेटे हुए बरगद के पेड़ पर एक सूत बाँध आते।
अबकी उनकी बीवी हामला हुईं तो करामत मियाँ अतिरिक्त सतर्क हो गए। सगुन-असगुन और खान-पान का पूरा ख्याल रखना शुरू किया। इमाम साहब से तावीज़ बनवा लाए। तमाम तरह की सुनी-सुनाई ताक़ीदें देने लगे, ‘अज़ान के वक़्त खुले में मत रहो’, ‘ज़वाल के वक़्त भूल से भी मत लेटो, उस वक़्त खाओ-पियो भी नहीं’, ‘अच्छी-अच्छी बातें सोचो, कलमा पढ़ो’।
अब वह घर में अपना वक़्त ज़्यादा बिताते। बीवी का पूरा ख़्याल रखते। उनके उठने-बैठने और लेटने-उठने की पूरी परवाह रखते। 
करामत मियाँ के घर पर रहने से लड़कियों की साँसत हो गई थी। माँ के सामने तो वे जैसे चाहे लेट-बैठ सकती थीं। हर वक़्त सिर पर दुपट्टा ओढ़े रखने की मजबूरी भी नहीं थी। कभी-कभी दबे स्वरों में गुनगुना भी सकती थीं। पर करामत मियाँ के सामने उनकी नज़रें झुकी रहतीं। कान हर वक़्त उनके आदेश और वर्जनाओं के पालन में तत्पर रहते।
अल्लाह-अल्लाह करते दिन पूरे हुए। करामत मियाँ ने इस बार बड़ी दुआएँ कीं थीं। रात-रात जागकर इबादत की थी। पूरा यक़ीन था कि इस बार क़िस्मत उनके साथ इंसाफ़ करेगी। जब एक शाम बीवी ने दर्द शुरू होने की सूचना दी तो वे दाई को बुलाने फ़ौरन दौड़े गए।
करामत मियाँ को इस बार बड़ी उम्मीद थी। डरते-डरते उनका मन ख़्वाब संजोने लगा था। बाहर धीरे-धीरे अँधेरा बढ़ रहा था, पर उनके मन में रोशनी की एक धुँधली-सी उम्मीद झिलमिला रही थी। इंतज़ार में बैठे करामत मियाँ के लिए एक-एक पल पहाड़-सा हो रहा था।
तभी उस अँधेरे में किसी ने कंधे पर हाथ रखा। देखा तो इमाम साहब थे-मिठाई का डिब्बा लिए हुए।
‘‘मुबारक हो करामत मियाँ, अल्लाह के फ़ज़लो-करम से तुम्हारी भतीजी को नौकरी मिल गई। लो मिठाई खाओ।’’ इमाम साहब का नूरानी चेहरा ख़ुशी से खिला हुआ था। 
इससे पहले कि करामत मियाँ कुछ कहते कि उनके घर का दरवाज़ा खुला और दाई बाहर निकलकर आई। करामत मियाँ ने बड़ी आस से उसकी ओर देखा। दाई मरियल-सी आवाज़ में बोली, ‘‘बधाई हो भैया, घर में बरकत आई है।’’ और प्रतिक्रिया का इंतज़ार किए बिना अँधेरी गली में ओझल हो गई।
करामत मियाँ पछाड़ खाकर गिर पड़े। 
(सभी चित्र गूगल से साभार)