Friday 26 September 2014

रावण और हनुमान

एक थे संकटा प्रसाद जी। गांव की रामलीला में वह हमेशा रावण का रोल करते थे। लंबा-चौड़ा शरीर, बड़ी-बड़ी आँखें, भरी-भरी मूँछें। जब उन्हें सजा-बनाकर खड़ा किया जाता तो वह सचमुच रावण से कम न लगते।

   संकटा प्रसाद जी थोड़े मंदबुद्धि के थे। बातों को थोड़ा देर से समझते थे। इसके कारण उन्हें अक्सर हँसी का पात्र बनना पड़ता था। अपने संवादों को वह खूब रटकर रखते थे, लेकिन अगर उसमें थोड़ा भी हेर-फेर हो जाए तो बात उनके सँभाले न सँभलती थी। बोलना चाहते कुछ और मुँह से निकलता कुछ। कभी-कभी तो ऐसी बातें बोल जाते कि सुनने वाले लोटपोट हो जाते।
   रामलीला के आयोजक उन्हें महीनों पहले संवादों के पुलिंदे थमा देते थे। पाँचवीं पास संकटा प्रसाद जी अटक-अटककर पढ़ते और दिन भर दुहरा-दुहराकर याद करते रहते। संवाद याद करने में वह इतने मगन हो जाते कि भूल जाते वह अपनी छोटी-सी दूकान में बैठे हैं। दूकान उनके लिए लंका बन जाती और वह लंकेश्वर।
   एक दिन संकटा प्रसाद जी अपने आप में डूबे संवाद याद कर रहे थे कि ससुराल से उनका नाई, जिसका नाम हनुमान था, आ पहुँचा। दीवाली नजदीक थी। सासू जी ने त्योहारी भिजवाई थी।
   नाई थोड़ी देर प्रतीक्षा में खड़ा रहा कि संकटा प्रसाद जी कुछ कहें। पर वह क्या कहते? वह तो आँखें बंद किए दूसरी ही दुनिया में खोए हुए थे। खाँसने-खँखारने से भी काम न चला तो नाई ने धीरे से आवाज दी, ‘‘दामाद जी!’’
   संकटा प्रसाद जी उस समय लंका कांड के संवाद याद कर रहे थे। हनुमान ने सारी अशोक वाटिका तहस-नहस कर दी थी और अब मेघनाथ उन्हें नागपाश में बांधकर दरबार में लाया था। रावण पूछ रहा था, ‘‘रे शठ! तू कौन है ?’’
नाई को कुछ समझ में न आया। वह बेचारा घबरा गया। कहाँ तो वह सोचकर आया था कि खूब खातिरदारी होगी, तर माल खाने को मिलेगा, भेंट-उपहार मिलेंगे, पर यहाँ तो सारा दृश्य ही बदला हुआ था। संकटा प्रसाद जी लाल-पीली आँखों से उसे घूर रहे थे और पूछ रहे थे, ‘‘रे शठ तू कौन है ?’’ नाई घबरा गया और हड़बड़ाकर बोला, ‘‘मैं हनुमान हूँ, सरकार!’’
   हनुमान का नाम सुनते ही जो कसर बची थी वह भी खत्म हो गई। संकटा प्रसाद जी पूरे के पूरे लंका नरेश हो गए। उन्होंने अट्टहास लगाकर कहा, ‘‘हे मेघनाथ, इस कपि को क्या दंड दिया जाए ?’’
   नाई ने समझा कि मेघनाथ इनके किसी नौकर का नाम है। जब नाम ही पहलवान जैसा है तो वह खुद कैसा होगा। नौकर होते भी बड़े निर्दयी हैं। पा गया तो बहुत धुलाई करेगा। यह सोचकर बेचारे नाई की हालत पतली हो गई।
   संकटा प्रसाद जी हवा में हाथ लहराते हुए चीखे, ‘‘कहाँ है मेरी तलवार, चंद्रहास ? अभी इस दुष्ट को खंड-खंड करता हूँ।’’
   अब तो नाई से न रहा गया। उसने पोटली उठाई और सिर पर पैर रखकर भाग निकला। संकटा प्रसाद जी ने उसे भागता देखा तो चीखे, ‘‘सैनिकों, पकड़ो इस धृष्ट को! भागने न पाए।
   लेकिन सैनिक तो थे नहीं जो उनके आदेश का पालन करते। वह खुद ही उसके पीछे-पीछे दौड़ पड़े। आगे-आगे नाई और पीछे-पीछे संकटा प्रसाद जी, हाथों में अदृश्य तलवार लहराते हुए।
   नाई को गाँव के गलियारों का अंदाजा तो था नहीं, वह भागता-भागता तालाब की ओर निकल आया। अब वह बुरा फँसा। जाए तो जाए कहाँ ? एक तरफ कुआँ तो दूसरी तरफ खाई। आगे कीचड़ और दलदल से भरा तालाब था तो पीछे संकटा प्रसाद जी दौड़े चले आ रहे थे। नाई को लगा बचना संभव नहीं है तो अरे राम! अरे राम!कहता हुआ तालाब में कूद पड़ा।
   पीछे-पीछे संकटा प्रसाद जी भी दलदल में समाने वाले थे कि शोर सुनकर गाँववाले उधर आ निकले। उन लोगों ने संकटा प्रसाद जी को पकड़कर झिंझोड़ा तब कहीं उन्हें होश आया।
   गाँव वालों ने बड़ी मुश्किल से नाई को दलदल से बाहर निकाला। बाहर आते ही वह जोर-जोर से रोने लगा। लोगों ने पूछा तो कहने लगा, ‘‘मेरी पोटली तालाब में ही छूट गई।’’
   ‘‘पोटली में क्या था ?’’
   ‘‘मालकिन ने सौगात भिजवाई थी। दामाद जी के लिए कपड़े, मिठाइयाँ और जीजी के लिए गहने। हाय, अब मैं उन्हें क्या मुँह दिखाऊँगा।’’
   यह सुनते ही संकटा प्रसाद जी की सारी खुमारी हिरन हो गई। लेकिन अब हाथ मलकर पछताने के सिवा चारा ही क्या बचा था।   

5 comments:

  1. अरे वाह साहब। आपका ब्लाॅग आज ही देखा। मज़ा आ गया। अपन का भी एक नाचीज़ सा ब्ला।ग है कभी उस पर भी निगाह डालियएएगा। https://www.blogger.com/blogger.g?blogID=2265309817448497891#overview/src=dashboard

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  2. कहानी मज़ेदार है। हास्य का पुट तो हमसे बनता ही नहीं। इस मामले में आप खानबधुओं का जवाब नहीं।

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    1. शुक्रिया भाई, पर कामिया भी बताया करें

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