Monday, 15 July 2024

नई पुस्तकें

 

पहाड़ी के उस पार

किशोर-उपन्यास

 

प्रोफेसर रमन एक वनस्पति शास्त्री हैं, जिनके क़दम औषधीय पौधों की खोज में जगह-जगह भटकते रहते हैं। उनकी इस यात्रा के साथी होते हैं-- विक्की और मोंटू। ऐसी ही एक यात्रा के दौरान वे अबूझमाड़ के जंगलों में जा पहुँचते हैं। अबूझमाड़-- यानी ऐसी अबूझ धरती जहाँ चप्पे-चप्पे पर खतरे मँडराते हैं, जहाँ क़दम-क़दम पर आशंकाएँ थरथराती हैं। खोज के दौरान वे नक्सलियों के बीच फँस जाते हैं और नज़रबंद कर लिए जाते हैं। और फिर शुरू होता है रोमांचक घटनाओं का सिलसिला। षडयंत्र, संघर्ष, साहस और जीवटता से भरा एक ऐसा रोमांचक उपन्यास, जिसे आप पूरा पढ़े बिना नहीं रुक सकते।

प्रकाशक : फ्लाई ड्रीम पब्लिकेशन, जैसलमेर, राजस्थान

मूल्य : 220/-

संस्करण : 2024 


 



जूते निकले घूमने

हिंदी साहित्य के अग्रणी प्रकाशक अद्विक प्रकाशन प्रा0 लि0, दिल्ली द्वारा प्रकाशित जूते निकले घूमनेनन्ही-नटखट कहानियों का ऐसा संग्रह है, जो विशेषकर छोटे बच्चों को केंद्र में रखकर लिखी गई हैं। रंग-बिरंगी सात कहानियों का यह गुलदस्ता बच्चों को गुदगुदाएगा, हँसाएगा और उनकी कल्पनाशक्ति को उड़ान देगा। रंग-बिरंगे सुंदर चित्रों से सजी कहानियाँ बच्चों को निश्चित तौर पर भाएँगी। कहानियों की भाषा अत्यंत सरल है। इनकी रोचक कहन-शैली बच्चों बच्चों को विशेष रूप से पसंद आएगी।

प्रकाशक : अद्विक पब्लिकेशन प्रा०लि०, दिल्ली

मूल्य : 200/-

संस्करण : 2024


Wednesday, 13 December 2023

सारे नाचे धम्मक-धम

 



‘‘मैं तो लेटे-लेटे बोर हो गया हूँ। लेटे-लेटे सोना-जागना, लेटे-लेटे खाना-पीना, लेटे-लेटे ही चलना। काश मेरे भी पैर होते।’’ साँप ने आह भरते हुए कहा।

साँप की बात पर सारे जानवरों ने हाँमें हाँमिलाई। पर घोड़ा चुपचाप खड़ा रहा। बंदर ने पूछा, ‘‘तुम क्यों चुप हो?’’

घोड़ा बोला, ‘‘सच तो यह है कि मैं तो खड़े-खड़े बोर हो गया हूँ। इक्के में जुतकर दिन भर दौड़ते-दौड़ते थक जाता हूँ। मन होता है काश, मैं भी लेट सकता। पर क्या करूँ? प्रकृति ने मुझे ऐसा बनाया कि खड़े-खड़े ही सोना पड़ता है।’’

तभी वहाँ एक बगुला आकर बैठ गया। वह बहुत उदास था। उसका चेहरा उतरा हुआ था। सबने पूछा तो कहने लगा, ‘‘काश, मेरे भी दो हाथ होते!’’

‘‘पर तुम ऐसा क्यों कह रहे हो?’’ भालू ने पूछा।

‘‘मैं सुबह से ताक लगाए एक पैर पर खड़ा था। बड़ी मुश्किल से एक मछली हाथ लगी। मछली बड़ी थी। वह मेरी चोंच से छिटककर भाग गई। अगर हाथ होते तो उसे कसकर दबोच लेता।’’


‘‘काश, मेरे पंख होते,’’ तभी बिल्ली बोली, ‘‘कल एक बंद गली में शरारती बच्चों ने मुझे घेर लिया। और दौड़-दौड़ाकर बेहाल कर दिया। अगर पंख होते तो फुर्र हो जाती।’’

तभी बड़ी देर से सबकी बात सुन रहा कबूतर बोला, ‘‘मैं सोचता हूँ कि मेरे भी दाँत होते। हमें तो खाने का कोई स्वाद ही नहीं मिलता। जो मिला गटक गए।’’

कबूतर की बात पर कोई कुछ कहता कि मगरमच्छ बोल उठा, ‘‘मैं तो अपने टेढ़े-मेढ़े दाँतों से परेशान हूँ। दाँतों में अक्सर माँस के टुकड़े फँस जाते हैं। तब हमें चिड़ियों के भरोसे रहना पड़ता है। घंटों जलती रेत पर मुँह खोले पड़े रहो। तब कहीं कोई चिड़िया आकर दाँतों की सफाई करती है।’’

तभी कछुआ बोला, ‘‘दोस्तो, मेरे हाल न पूछो। काश, मैं भी खरगोश की तरह तेज़ रफ्तार चल पाता।’’

कछुए की बात पूरी होते-होते खरगोश हँस पड़ा। वह बोला, ‘‘लेकिन कछुए भाई, अपनी धीमी चाल से ही तुमने हमारे परदादा के परदादा को हरा दिया था।’’

लेकिन हाथी अपने आप में मस्त था। उसने कहा, ‘‘चाहता तो मैं भी हूँ कि कंगारू की तरह उछल सकूँ। पर उछल नहीं सकता तो नाच तो सकता हूँ।’’ यह कहकर वह सूँड उठाकर धम-धमकरके नाचने लगा।

उसे नाचता देख बाकी सब भी नाचने लगे।

Monday, 6 November 2023

नई किताबें

 आत्माराम एंड सन्स की फर्म अमातरा पब्लिकेशन्स तथा व्हाइट पेपर पब्लिकेशन्स, दिल्ली से प्रकाशित मेरी दो नई किताबें-‘21 हास्य बाल कहानियाँ’ और ‘आदमख़ोर शेरनी’।

‘21 हास्य बाल कहानियाँ’  में 21 हास्य बाल कहानियाँ संग्रहीत हैं जबकि ‘आदमख़ोर शेरनी’ में  साहस एवं रोमांच से भरी हुई 9 कहानियाँ संकलित हैं।

दोनों पुस्तकों का लिंक इस प्रकार है-

‘21 हास्य बाल कहानियाँ’ 

https://www.amazon.in/Bal-Hasya-Kathaien-ISBN-9789392602672/dp/B0CL2C8NT5/ref=sr_1_10?qid=1699284039&refinements=p_27%3AArshad+Khan&s=books&sr=1-10



‘आदमख़ोर शेरनी’

https://www.amazon.in/Aadam-Khor-Sherni-Mohd-Arshad/dp/B0CL2C6HGB/ref=sr_1_11?qid=1699284039&refinements=p_27%3AArshad+Khan&s=books&sr=1-11



Monday, 29 May 2023

मेरी नई पुस्तक : 'झुनकू' (बाल उपन्यास)

 


      पुस्तक : झुनकू

विधा : बाल उपन्यास

प्रकाशक : प्रकाशन विभाग, सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय, भारत सरकार, नई दिल्ली.

प्रकाशन वर्ष : 2023

पृष्ठ संख्या : 110

मूल्य : 275/-


ईश्वर ने हर व्यक्ति को कोई न कोई विशिष्टता अवश्य दी है। जो व्यक्ति अपनी इस विशिष्टता को पहचान लेता हैमंज़िल उसके क़दमों में होती है। यह विशिष्टता किसी को वैज्ञानिक बना देती हैकिसी को दार्शनिक। किसी को खिलाड़ी तो किसी को अभिनेता। संसार में जो भी मशहूर हस्तियाँ हुई हैंउन्होंने अपनी इस विशिष्टता को पहचाना है। दुनिया ने कितनी भी हँसी उड़ाईकितनी भी उपेक्षा कीपर वे विश्वास के साथ अपनी धुन में लगे रहे। समय बीतने के साथ-साथ उन्होंने अपनी प्रतिभा को सिद्ध कर दिया। फिर वही दुनिया जो उनकी हँसी उड़ाती थी, उनके पीछे-पीछे चलने लगी। बस, ज़रूरत है तो आत्मविश्लेषण के द्वारा अपनी विशिष्टता को पहचानने की। जिस दिन तुमने उसे पहचान लिया, उस दिन सफलता दूर नहीं।

इस उपन्यास में ऐसा ही एक चरित्र है झुनकू। सीधा-सच्चा, भोला-भाला। स्वार्थ भरी दुनिया की चालाकियों से दूर। सब उसे मूर्ख बनाते हैं। उसकी हँसी उड़ाते हैं, पर वह विचलित नहीं होता। धीरे-धीरे झुनकू इस कमज़ोरी को ही अपनी ताक़त बना लेता है। उसके बाद झुनकू, झुनकू नहीं रहता। वह सच्चाई और ईमानदारी की जीती-जागती मिसाल बन जाता है। सिर्फ मनसुखपुर ही नहीं आस-पास के गाँववाले भी उसके आचरण को देखकर सीखते हैं।

ग्रामीण पृष्ठभूमि में लिखा गया यह उपन्यास सिर्फ झुनकू की कहानी ही नहीं कहता, बल्कि गाँवों की साझी संस्कृति और मेलजोल की कथा भी कहता है। इसमें हँसी-चुहल भी है और गहन संवेदना भी। आशा करता हूँ यह उपन्यास बच्चों के साथ-साथ बड़ों को भी पसंद आयेगा


Friday, 24 September 2021

मेरी नई पुस्तक रोचक नन्ही कहानियाँ

 


पुस्तक का नाम: रोचक नन्ही कहानियाँ

प्रकाशक: लोकोदय प्रकाशन, लखनऊ-226026

मूल्य: 125/ रु0

पृष्ठ संख्या: 72

संस्करण: 2021

कुल संकलित कहानियाँ: 20

 

पुस्तक की भूमिका

 

 नन्हे दोस्तो,

पहले जब तुम जैसा था, तो मुझे भी तुम्हारी तरह पढ़ने का बेहद शौक़ था। पिता जी सरकारी नौकरी में थे। पोस्टिंग ऐसी जगह थी, जहाँ किताबें तो क्या, ज़रूरत की चीज़ें भी मुश्किल से मिलती थीं। जब गर्मी की दोपहरी में लू की साँय-साँय हो रही होती, चारों तरफ सन्नाटा छाया होता, तो वहाँ बने छोटे-छोटे पाँच सरकारी क्वार्टरों में रहनेवाले कुल जमा सात बच्चे अपने माता-पिता की नज़र बचाकर बाहर निकल आते। फिर पास के जंगल में किसी पेड़ पर चढ़कर आपस में कहानियाँ बना-बनाकर कहते-सुनते। इन्हीं दिनों बड़े भाई की नौकरी लखनऊ में लग गई। अब वे महीने-दो महीने में जब भी लौटते, हमारे लिए चंपक, नंदन, पराग, मधुमुस्कान, लोटपोट जैसी किताबें ले आते। उन दिनों पढ़ने का ऐसा शौक़ था कि किताबें सिरहाने रखकर सोते। अलस्सुबह जब नींद खुलती तो बिस्तर पर लेटे-लेटे नीम उजाले में आँखें गड़ा-गड़ाकर पढ़ना शुरू कर देते। जो कहानी अच्छी लग जाती, उसे बार-बार पढ़ते। चलते-फिरते गीत-कविताएँ गुनगुनाते रहते। होड़ लगी रहती कि किसको कितनी कहानियाँ-कविताएँ याद हैं। कहानी-कविताओं के चित्र बनाने की कोशिश में पन्ने रँगते रहते।

पढ़ते-पढ़ते कब लिखने का शौक़ लग गया पता ही नहीं चला। सन 1990 में, जब मैं कक्षा आठ पास कर चुका था, तो पहली रचना एक अख़बार में छपी। कितनी ख़ुशी मिली होगी, इसका अंदाज़ा तुम लगा सकते हो। उसके बाद से लगातार लिखता रहा।

बहरहाल इस संग्रह में कुछ कहानियाँ संकलित करने की कोशिश की है। इनमें से अधिकतर कहानियाँ उन्हीं पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुई हैं, जिन्हें मैं बचपन में पढ़ा करता था। इस संदर्भ में दिल्ली प्रेस का मैं बेहद आभारी हूँ, जिसने चंपकमें प्रकाशित इन रचनाओं को अपने संग्रह में संकलित करने की अनुमति प्रदान की। अब ये कहानियाँ कैसी बन पड़ी हैं, यह तो तुम ही बता सकते हो। तुम इन कहानियों को ज़रूर पढ़ना। और पढ़ना, तो यह भी ज़रूर बताना कि तुम्हें कैसी लगीं। इंतज़ार रहेगा।

तुम्हारा भैया


Sunday, 7 March 2021

बाल किसने किए सफाचट?

 


            ‘‘हाय, मोरी अम्मा...’’ एक सुबह कत्तो बुआ दहाड़ें मारकर रोने लगीं।

गाँववाले उनकी आवाज़ सुनकर दौड़े। हजारा और पिटारा भी आँखें मलते भागे आए।

लोग दरवाज़ा पीट रहे थे, पर कत्तो बुआ दरवाज़ा खोलने को तैयार नहीं थीं। ऊपर से उनका दहाड़े मारकर रोना लोगों को हैरान किए हुए था।

जब आवाज़ देते काफी देर हो गई और दरवाज़ा नहीं खुला तो हजारा ने कहा, ‘‘सब लोग पीछे हटो, मैं दरवाज़ा तोड़ देता हूँ।’’

पिटारा उन्हें किनारे ले जाकर फुसफुसाए, ‘‘ऐसा सोचना भी मत। वर्ना कत्तो बुआ दरवाज़ा ठीक कराने का सारा पैसा हमसे वसूल लेंगी।’’

‘‘तो फिर...?’’ हजारा ने पूछा।

‘‘रुको, मैं कोशिश करता हूँ,’’ पिटारा ने कहा और दरवाज़े की झिर्रियों से अंदर झाँकने की कोशिश करने लगे। देखा तो एक किनारे पल्लू से मुँह ढाँपे कत्तो बुआ रोए जा रही हैं।

पिटारा ने बड़े प्यार से कहा, ‘‘बुआ, क्या हुआ? कुछ तो बताओ? बाहर आओ, देखो सब लोग तुम्हारे लिए परेशान हो रहे हैं।’’

बड़ी मुश्किलों से बुआ का मुँह खुला, ‘‘अरे बाहर कैसे आऊँ, बेटा? मैं तो किसी को मुँह दिखाने लायक़ नहीं रही।’’

‘‘अरे ऐसा क्या हो गया? कोई परेशानी होगी तो हम लोग तो हैं न? तुम्हीं तो कहती हो कि हजारा-पिटारा हर मर्ज की दवा हैं।’’

‘‘पर इस बार तुम लोग भी कुछ नहीं कर सकते।’’

लेकिन पिटारा ने हार नहीं मानी। मनुहार करते रहे। ख़ैर, बड़ी मुश्किलों से कत्तो बुआ ने दरवाज़ा खोला। सामने आते ही सब हैरान रह गए। कत्तो बुआ के सिर के सारे बाल सफाचट थे।

‘‘यह किसने किया...?’’ सबके मुँह से एकाएक निकला।

‘‘यही पता होता तो मुए की हजामत बना डालती। रात को दरवाज़ा बंद करके सोई थी। न जाने कौन कमबख़्त बालों पर उस्तरा फेर गया। जाने किस जन्म की दुश्मनी निकाली है, करमजले ने।’’ कत्तो बुआ ने रोते-रोते बताया।

‘‘तुम्हारे बाल मुँड गए और तुम्हें ख़बर भी न हुई?’’ किसी ने पूछा।

‘‘क्या पता बेहोशी की कोई जड़ी सुँघा दी हो,’’ भीड़ से ही किसी ने उत्तर दिया।

हजारा-पिटारा की भी समझ में कुछ नहीं आ रहा था।

अगली सुबह फिर वही घटना हुई। चौकीदार मोगा सिंह का भी वही हाल था। सिर के बाल ही नहीं बड़ी-बड़ी गलमुच्छें भी ग़ायब थीं।

मोगा सिंह मुँह फाड़-फाड़कर रोते हुए कह रहा था, ‘‘दुष्ट, बाल मूँड देता तो कोई बात नहीं थी। कम से कम मूँछें तो छोड़ देता। कितने प्यार से तेल पिला-पिलाकर पाला था। अब तो गली का मरियल कुत्ता भी मुझसे नहीं डरेगा।’’

जब तीसरे दिन बल्लू काका के साथ भी यही घटना हुई तो लोग गंभीर हो गए। आख़िर कौन है जो रातों-रात चुपके से सबके बाल मूँड जाता है। उसे भला इसमें क्या मिलता है?

‘‘कहीं भूत-चुड़ैल का चक्कर तो नहीं?’’ रज्जो ताई बोलीं।

‘‘कोई न कोई बात तो ज़रूर है। लेकिन आप लोग घबराइए मत। हम इसका पता लगाकर रहेंगे। क्यों हजारा?’’ पिटारा ने कहा।

‘‘बिल्कुल पिटारा,’’ हजारा ने सीना फुलाकर हामी भरी।

हजारा-पिटारा ने ऐलान किया, ‘‘भाइयो, अब डरने की बात नहीं है। आप लोग घरों में चैन की नींद सोइए। कल से हम लोग रात भर जागकर पहरेदारी करेंगे। अगर वह बाल मुँडवाचंगुल में आ गया तो उसकी ऐसी हजामत बनाएँगे कि हमेशा याद रखेगा।’’

रात होते ही हजारा-पिटारा मजबूत डंडे लेकर पहरेदारी में जुट गए।

‘‘जागते रहो...’’ हजारा ने ज़ोर की आवाज़ लगाई।

‘‘अरे..रे, क्या कर रहे हो?’’ पिटारा ने खीझकर बोले, ‘‘हमारी आवाज़ सुनकर बाल-मुँडवाको ख़बर हो जाएगी और वह भाग निकलेगा।’’

हजारा खिसियाकर हें-हेंकरने लगे। दोनों चुपचाप अंधेरी गलियों में फिरने लगे।

अचानक उन्हें भग्गू सुनार की दीवार के पास एक साया नज़र आया। हजारा-पिटारा सावधान हो गए। मन ही मन ख़ुश भी हो रहे थे कि आज बाल मुँडवाको पकड़कर एक बार फिर गाँववालों की निगाह में हीरो बन जाएँगे। पिटारा ने फुसफुसाते हुए हजारा को समझाया, ‘‘एक तरफ से मैं जाता हूँ, दूसरी तरफ से तुम जाओ। फिर दोनों एक साथ बाल मुँडवापर झपट पड़ेंगे।’’

मौका देखकर एक तरफ से हजारा झपटे, दूसरी तरफ से पिटारा। पर यह क्या? साए ने एक ओर हजारा को उछालकर फेंका और दूसरी ओर पिटारा को। पटखनी खाते ही दोनों को समझ में आ गया कि जिसे वह बाल मुँडवासमझ रहे थे, वह गज्जू चौधरी का मरखना साँड है। साँड दीवार से रगड़कर पीठ की खुजली शांत कर रहा था। अचानक आई बाधा से वह ग़ुस्से से भर गया था।

उसने खुरों से जमीन खोदी, नथुनों से झाग फेंका और दौड़ पड़ा हजारा-पिटारा के पीछे। उसने उन्हें पूरे गाँव की गलियाँ घुमा डालीं। इतना भागे, इतना भागे कि इसी भागम-भाग में सुबह हो गई। इधर सुबह हुई उधर लल्लू हलवाई के घर रोना-पीटना मच गया। पता चला उसके बाल भी किसी ने रातों-रात मूँड दिए।

हजारा-पिटारा चक्कर में आ गए कि आख़िर माजरा क्या है? रात भर गलियों में भागा-दौड़ी करते रहे पर जाने किस बीच बाल मुँडवाअपना काम कर गया!

पिटारा ने हजारा से कहा, ‘‘लगता है कि बाल मुँडवाबहुत चालाक है। हमें उससे ज़्यादा होशियारी दिखानी होगी, तभी हम उसे पकड़ पाएँगे। हमें दिन में भी इधर-उधर फिरते रहना चाहिए। हो सकता है कोई सुराग हाथ लगे।’’

‘‘हाँ, पिटारा, कह तो बिल्कुल सही रहे हो। पर रात भर जागने के कारण मुझे नींद आ रही है।’’ हजारा ने मुँह फाड़ते हुए कहा।

‘‘यहाँ गाँववालों पर मुसीबत मँडरा रही है और तुम्हें नींद की पड़ी है!’’ पिटारा ने ग़ुस्से से कहा, ‘‘मुँह पर ठंडे पानी के छींटे मारो और चलो निगरानी में जुट जाओ।’’

हजारा-पिटारा दिन भर गाँव भर में घूमते रहे। शाम को जब वे एक दूकान के सामने से गुज़र रहे थे कि अचानक किसी की आवाज़ सुनाई दी--‘‘भैया, एकदम बढ़िया तेज़ धारवाला उस्तरा देना। तलवार जैसा। ऐसा कि एक बार फिराते ही बाल सफाचट’’

हजारा-पिटारा चौंक पड़े। दोनों एक पेड़ के पीछे छिपकर देखने लगे। देखा तो भब्भन नाई दूकान पर खड़ा उस्तरा ख़रीद रहा था।

हजारा उतावले होकर बोले, ‘‘ओह, तो यह है बाल मुँडवा। चलो, इस दुष्ट को दबोचकर सबक़ सिखाते हैं।’’

‘‘नहीं, नहीं, अभी नहीं। इसे रंगों हाथ पकड़ेंगे। बस, अब इस पर नज़र रखनी है।’’ पिटारा ने हजारा को रोकते हुए कहा।

हजारा-पिटारा दोनों भब्भन की निगरानी में लग गए। धीरे-धीरे रात गहराने लगी। पिटारा बोले, ‘‘हजारा, होशियार रहना। अब किसी भी समय भब्भन घर से निकल सकता है।’’

हजारा, जो अब तक उबासियाँ ले-लेकर मुँह फाड़े जा रहे थे, बोले, ‘‘निकलना है तो जल्दी निकले दुष्ट, यहाँ बुरा हाल हो रहा है। एक तो नींद, ऊपर से ये मच्छर।’’

रात बीतती रही, पर भब्भन घर से न निकला। नज़र गड़ाए-गड़ाए हजारा-पिटारा की आँखें थक गईं।

इधर मुग़ेर् ने कुकड़ू कूँकिया, उधर भब्भन के चिल्लाने की आवाज़ आई। हजारा-पिटारा लपककर पहुँचे तो देखा कि भब्भन की घुँघराली लटें एकदम सफाचट हैं। दोनों हैरान रह गए। कहाँ तो वे भब्भन पर शक कर रहे थे और यहाँ भब्भन ख़ुद बाल मुँडवाका शिकार हो गया।

हजारा-पिटारा थके क़दमों से कत्तो बुआ के घर आ बैठे। पिटारा कहने लगे, ‘‘एक बात समझ में नहीं आई। हम लोगों ने पूरी रात भब्भन के घर पर निगाह रखी। क़सम है जो एक बार को भी आँखें झपकीं हों। आख़िर ये बाल मुँडवाकिस बीच उसके बाल मूँड गया?’’

‘‘यही सोच-सोचकर तो मेरा सिर भी दर्द से फटने लगा है।’’ हजारा सूजी-सूजी आँखें लिए हुए बोले।

कत्तो बुआ बोलीं, ‘‘लाओ, बेटा, मैं तुम्हारे सिर में तेल लगाकर चंपी कर दूँ। फिर पराठे बना देती हूँ। भूखे होगे।’’

कत्तो बुआ हजारा के सिर में चंपी करती हुई बोलीं, ‘‘यह बहुत ख़ास तेल है। लगते ही सारा दर्द उड़न छू हो जाएगा।’’

कत्तो बुआ बालों में चंपी करने लगीं और हजारा सिर में होती गुदगुदी का मज़ा लेने लगे। चंपी करने के बाद बुआ पराठे बनाने चली गईं। तभी हजारा ने उलझे बालों को दुरुस्त करने के लिए सिर पर हाथ फिराया। सिर पर हाथ फिराना था कि सारे बाल झप्पसे नीचे आ गिरे। हजारा भौंचक रह गए। पिटारा का भी मुँह खुला का खुला रह गया। कत्तो बुआ भी हैरत में थीं कि आख़िर यह कैसे हुआ?

पिटारा चिल्लाए, ‘‘बुआ, यह कौन-सा तेल तुमने लगा दिया? कहाँ से लेकर आई थीं?’’

कत्तो बुआ घबराई हुई बोलीं, ‘‘हफ़्ते भर पहले एक तेल बेचनेवाला आया था। कह रहा था कि रात में इसे लगाकर सोया जाए तो बाल सावन की दूब की तरह बढ़ते हैं।’’

‘‘बुआ, तुमने ठीक नहीं सुना,’’ हजारा बिसूरते हुए बोले, ‘‘बाल तेज़ी से बढ़ते नहीं, कमबख़्त ने कहा होगा बाल तेज़ी से झड़ते हैं...’’

‘‘पर चलो, इसी बहाने बाल मुँडवाका भेद तो खुला।’’ पिटारा गहरी साँस लेते हुए बोले, ‘‘इसीलिए कहते हैं कि बिना जाने-परखे कोई चीज़ नहीं ख़रीदनी चाहिए। चलो, जो हुआ सो हुआ। अब जल्दी से पराठे खिला दो ताकि बाक़ी लोगों को ख़बर कर आऊँ, वर्ना खजानपुर गंजों का गाँव न मशहूर हो जाए।’’

पिटारा की बात पर कत्तो बुआ तो हँसीं तो रुआँसे बैठे हजारा को भी हँसी आ गई।