गर्मी अपने यौवन पर थी। सूरज से जैसे आग बरस रही थी। लू के थपेड़ों से धरती तवा बनी हुई थी। धूल के बवंडर रह-रहकर आसमान को मटमैला कर देते थे। शहर की ओर जानेवाली सड़क पर दूर-दूर तक सन्नाटा छाया हुआ था।
मास्टर छोटेलाल पाकड़ के पेड़ के नीचे खड़े बस का इंतज़ार कर रहे थे। उन्होंने चेहरे को अँगोछे से इस तरह ढँक रखा था, कि सिर्फ मोटे लेंसवाला चश्मा ही नज़र आ रहा था। पर इसके बाद भी उन्हें दूर से पहचाना जा सकता था। छोटा क़द, थुलथुल शरीर, मोटी-सी गर्दन, मटकी जैसा सिर और शरीर पर मटमैला धोती-कुर्ता।
मास्टर छोटेलाल क़स्बे के हाईस्कूल में हिंदी के अध्यापक थे। सच्चे और सीधे। चालाकी और होशियारी से उनका दूर का नाता था। पूरी लगन से पढ़ाते। दूसरों की मदद के लिए ख़ुद का नुकसान उठाने को भी तैयार रहते। पर इन अच्छाइयों के बावजूद समाज में उनका वही स्थान था जो आज के ज़माने में सीधे और सच्चे इंसान का होता है।
एक महिला और उसके छोटे बच्चे के सिवा बस पकड़नेवालों में और कोई नहीं था। बच्चा मुश्किल से पाँच बरस का था। उसे देखकर मास्टर छोटेलाल का हृदय बार-बार पुलक रहा था। वह उस बच्चे की ओर देखे जा रहे थे। पर महिला उन्हें अजनबी समझकर बातचीत करने के प्रति उपेक्षा दिखा रही थी।
तभी मास्टर छोटेलाल को सड़क पर हो-हल्ला सुनाई दिया। देखा तो चार लड़के बीच सड़क पर एक-दूसरे को छेड़ते और हँसी-हंगामा करते चले आ रहे थे। उन पर न तो लू-धूप का असर था और न तपती हुई सड़क का। वे मौसम को ठेंगा दिखाते हुए अपने आप में मस्त थे। मास्टर जी को लड़कों की थोड़ी फिक्र तो हुई, पर उन्हें अच्छा भी लगा कि कोई तो है जो इन विपरीत परिस्थितियों में गुलमोहर की तरह जीवन का उल्लास बिखेर रहा है।
लड़कों के पास आने पर मास्टर छोटेलाल को लगा कि उनकी सूरत कुछ जानी-पहचानी लग रही है। थोड़ा और पास आए तो उन्होंने बीचवाले लड़के को पहचान लिया_ वह लोकेश था। वही लोकेश जिसके लिए वे पूरे स्कूल की आँख का काँटा बन गए थे। लोकेश के शरारती स्वभाव से परिचित प्राचार्य जी उसे स्कूल में प्रवेश नहीं देना चाहते थे। पर मास्टर छोटेलाल अड़ गए थे। उनका मानना था कि जो शिक्षा बालक को अनुशासित और आज्ञकारी न बना सके, वह व्यर्थ है। वह हमेशा मानते आए थे कि बच्चा कितना भी उद्दंड क्यों न हो, उसके हृदय में कहीं निश्छलता सोई होती है। शिक्षक का दायित्व है कि वह उस निश्छलता को जागृत करे। उन्होंने लोकेश के प्रवेश को एक चुनौती की तरह स्वीकारा था।
पर लोकेश भी अपने आप में अकेला नमूना था। उसकी उद्दंडताओं का पार नहीं था। क्या छात्र, क्या अध्यापक, हर कोई उसकी शरारातों से परेशान रहता था। मास्टर छोटेलाल उसे बेहद समझाते। पर वह तो चिकना घड़ा था। सबसे ज़्यादा तंग तो वह उन्हें ही करता था। उनकी कक्षा बड़ी मुश्किल से चल पाती थी। किंतु मास्टर छोटेलाल को विश्वास था कि एक न एक दिन वे लोकेश को सुधारकर ही दम लेंगे।
आज इतने दिनों बाद उसे देखकर मास्टर जी का मन एकाएक उमगा कि उसे रोककर बातें करें। पर जिस तरह से वह हंगामा कर रहा था, उनकी हिम्मत न पड़ी। रोकने के लिए उनका हाथ उठा ही रह गया। लड़के चिल्लाते-ठहाके लगाते पास से निकले तो एक ने लोकेश के कान में फुसफुसाकर कहा, ‘‘पीछे गुरू जी खड़े थे।’’
लोकेश ने घूमकर उचटती-सी निगाह डाली और कंधे उचकाकर लापरवाही से बोला, ‘‘होंगे। उससे क्या?’’ और उसी तरह हंगामा करता हुआ आगे बढ़ गया।
मास्टर जी का दिल बैठ गया। लोकेश के लिए उन्होंने क्या-क्या नहीं झेला था। साथी अध्यापकों की उलाहनाएँ, प्राचार्य जी की नाराज़गी। पर वह हमेशा लोकेश के पक्ष में खड़े रहे थे। हाईस्कूल पास करने के बाद जब वह पैर छूकर ग़लतियों की माफी माँगते हुए गया था, तो उन्हें लगा था कि देर से सही, पर उनकी मेहनत सफल हो गई। पर आज लोकेश को फिर उसी रूप में देखकर उन्हें बहुत पीड़ा हुई। उनका दिल बैठने लगा।
तभी धूल उड़ाती हुई बस आकर ठहर गई। मास्टर छोटेलाल एकाएक सब भूल गए और थैला संभालकर चढ़ने का उपक्रम करने लगे। बस पूरी भरी हुई थी। इस मार्ग पर वैसे भी बसें कम थीं। और जो आती थीं, वह खचाखच भरी होती थीं। मास्टर जी ने सीट की तलाश में नाउम्मीदी भरी नज़र दौड़ाई। पर आज उनकी कि़स्मत अच्छी थी। पीछे की तरफ खिड़की के पासवाली एक सीट ख़ाली थी। मास्टर छोटेलाल बच्चों की तरह ख़ुश हो गए। बस हो या ट्रेन आज भी वह खिड़की के बग़लवाली सीट पर बैठने का लोभ नहीं छोड़ पाते थे। अपना थैला उठाकर संतुलन बनाते हुए वह जैसे ही आगे बढ़े कि एकाएक सामने की सीट पर बैठा एक युवक उठ खड़ा हुआ। उसने लपककर पैर छुए। मास्टर छोटेलाल एकाएक ठिठक गए। उनके चेहरे का तनाव ढीला पड़ गया। अभी थोड़ी देर पहले लोकेश के कारण पैदा हुई मन की कड़वाहट एकाएक घुल गई। युवक ने कहा, ‘‘गुरू जी आप यहाँ बैठ जाइए।’’ यह कहकर वह प्रतिक्रिया देखे बिना लपकता हुआ खिड़की के बग़लवाली सीट पर पर जा बैठा। सब कुछ इतना जल्दी घटित हुआ कि मास्टर छोटेलाल एकाएक समझ न सके। बस में खिड़की के पासवाली सीट मिलती कब है? कोई न कोई पहले से जमा रहता है। और कभी मिल भी जाए तो जी मिचलाने या धूम्रपान करने का बहाना करके बग़लवाला उनकी सीट हड़प लेता था। आज उन्हें मौका मिला था। पर वह मौका उनके अपने ही शिष्य ने छीन लिया।
मास्टर छोटेलाल निराश होकर वहीं बैठ गए। उस सीट पर दो भारी-भरकम सवारियाँ पहले से मौजूद थीं। मास्टर जी भी हल्के-फुल्के न थे। बड़ी मुश्किल से उन्होंने ख़ुद को टिकाया। बस जब धचका लेती या मोड़ पर घूमती तो वह सीट से सरकते-सरकते बचते।
मास्टर छोटेलाल का चेहरा दुख और क्रोध से विकृत हो रहा था। उन्होंने पूरा जीवन छात्रें को निस्वार्थ भाव से पढ़ाने और जीवन-मूल्य विकसित करने में लगा दिया था। पर आज जैसे वह अपने आपको ठगा-सा महसूस कर रहे थे।
तभी बस रुकी। युवक का गंतव्य आ गया था। वह उतर रहा था। उसने एक बार फिर आकर उनके पैर छुए और नमस्ते करके उतर गया। मास्टर छोटेलाल ने वितृष्णा से नज़रें फेर लीं। पहली बार ऐसा हुआ था कि पैर छूने पर उन्होंने किसी को आशीर्वाद न दिया हो।
बस चल पड़ी। मास्टर छोटेलाल ने यूँ ही बिना किसी उद्देश्य के पीछे की ओर निगाह डाली। युवक के उतरने के बाद खिड़कीवाली सीट अब ख़ाली हो गई थी। अब तक कोई उस पर बैठा नहीं था। उनका मन खिड़कीवाली सीट पाने के लिए फिर हुमसने लगा। उन्होंने थैला संभाला और चलती बस में भरसक संतुलन बनाते हुए उस सीट की ओर लपक चले। लेकिन सीट पर ‘धप्प’ से बैठते ही वह बिलबिला गए क्योंकि सीट पत्थर की तरह सख़्त थी। उसका गद्दा फटा हुआ था और नीचे सिर्फ लकड़ी थी, जिसमें हल्की-हल्की कीलें उभरी हुई थीं। उस पर बैठना सज़ा काटने जैसा था। मास्टर छोटेलाल की हालत देखने लायक़ हो गई। अब वह अपनी पुरानी सीट पर भी नहीं जा सकते थे क्योंकि वहाँ एक महिला ने क़ब्ज़ा जमा लिया था। मजबूर होकर उठ खड़े हुए और बीच रास्ते में रॉड पकड़कर खड़े हो गए।
बस ऊबड़-खाबड़ रास्तों पर हिचकोले खाते बढ़ी जा रही थी। मगर अब उन्हें कोई दुख न था।
ब्लॉग बुलेटिन की दिनांक 06/09/2018 की बुलेटिन, कली कली से, भौंरे भौंरों पर मँडराते मिलेंगे - ब्लॉग बुलेटिन “ , मे आप की पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
ReplyDeleteउत्साहवर्द्धन के लिए आपका आभार
Deleteबेहद शुक्रिया
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