महर्षि
उद्दालक अपनी कुटी के सामने स्वच्छ चबूतरे पर बैठे हुए थे। बालक अष्टावक्र उनकी
गोद में विराजमान था। अष्टावक्र के अंग जन्म से टेढ़े-मेढ़े थे। दैनिक जीवन-चर्या
में उसे बहुत कठिनाई होती थी। आश्रम के अन्य बालकों के समान वह खेल-कूद नहीं सकता
था। उसकी इस विकलता के कारण उस पर महर्षि का स्नेह कुछ अधिक था।
प्रातः काल का
समय था। आस-पास अनेक पशु-पक्षी क्रीड़ाएँ कर रहे थे। सूर्य का प्रकाश घने वृक्षों
से छन-छनकर भूमि पर अल्पना रच रहा था। शीतल हवा मंद-मंद बह रही थी। नगर के कोलाहल
से दूर आश्रम के वातावरण में सुखद शांति छाई हुई थी। महर्षि किसी गहरे चिंतन में
मग्न अष्टावक्र के सिर पर हाथ फेर रहे थे और अष्टावक्र पशु-पक्षियों की क्रीड़ाएँ
देखकर पुलकित हो रहा था।
तभी महर्षि
उद्दालक का पुत्र श्वेतकेतु दौड़ता हुआ वहाँ आया। वह हाँफ रहा था। उसके चेहरे पर
पसीने की बूँदें झलक रही थीं। सखाओं ने उसे खेल में हरा दिया था और अब उसे चिढ़ा
रहे थे। इस कारण वह खीझा हुआ था।
श्वेतकेतु
शिकायत लेकर पिता के सम्मुख आ खड़ा हुआ। किंतु जब उसने अष्टावक्र को अपने पिता की
गोद में बैठे देखा तो सहज ईर्ष्या-भाव से भर उठा। उसे लगा कि पिता के प्रथम प्रेम
का अधिकारी वह है, अष्टावक्र
नहीं। उसका अधिकार छीना जा रहा है। वह क्रोध में भरकर पास आया और अष्टावक्र को गोद
से उठाते हुए बोला, ‘‘हटो मेरे पिता
की गोद से। उनके पास मुझे बैठना है। यह तुम्हारे पिता नहीं हैं। जहाँ तुम्हारे
पिता हों, वहाँ जाओ।’’
महर्षि
उद्दालक हतप्रभ रह गए। अष्टावक्र रोने लगा। वह रोते-रोते माता सुजाता के पास चला।
माता ने दौड़कर
बालक को गले लगा लिया और रोने का कारण पूछा। अष्टावक्र रोते-रोते कहने लगा, ‘‘माता, सच-सच बताओ,
मेरे पिता कौन हैं और कहाँ हैं ?’’
माता अवाक रह
र्गइं। जिस बात को अब तक यत्नपूर्वक छिपाती आई थीं, वह आज प्रकट हो गई थी। उनकी आँखें भीग गईं। वह अष्टावक्र को
गोद में भींचती हुई तनिक रोष में बोलीं,
‘‘तुझसे यह सब किसने कहा ?’’
‘‘बड़े भैया श्वेतकेतु ने,’’ अष्टावक्र ने सिसकते हुए कहा, ‘‘वे कहते हैं महर्षि उद्दालक मेरे पिता
नहीं।’’
माता मूर्ति
के समान निश्चल हो गईं। उनकी आँखों से आँसू बहकर अष्टावक्र के अंगों को भिगोने
लगे।
‘‘वह सच कहता है, पुत्र। महर्षि उद्दालक तेरे नाना हैं और
श्वेतकेतु मामा।’’
‘‘तो फिर बताओ न, मेरे पिता कौन हैं और कहाँ हैं ?’’ अष्टावक्र व्याकुल हो उठा।
माता ने लंबी
साँस खींची। बीते हुए समय की स्मृतियाँ उनकी आँखों में डबडबाने लगीं। हृदय पर
नियंत्रण करके उन्होंने कहना आरंभ किया--
‘‘जब तुम्हें सत्यता पता चल ही गई है, तो सुनो। तुम्हारे पिता का नाम कहोड था।
वे पिता जी के आज्ञाकारी और प्रिय शिष्यों में से थे। उनकी कर्तव्यपरायणता, सेवाभाव और सत्यनिष्ठा से प्रभावित होकर
पिता जी ने मेरा विवाह उनके साथ कर दिया। हम लोग सुखी जीवन व्यतीत करने लगे।’’
अष्टावक्र
ध्यानपूर्वक माता की बातें सुन रहा था।
‘‘एक दिन तुम्हारे पिता शिष्यों को
शास्त्र-ज्ञान दे रहे थे। असावधानी में वे एक मंत्र का उच्चारण बार-बार ग़लत कर रहे
थे। तुम उस समय गर्भ में थे। आश्रम के वातावरण ने तुम्हें गर्भ में ही ज्ञानी बना
दिया था। तुमने पिता को टोक दिया,
‘हे, पिता श्री, आप शिष्यों को ग़लत शिक्षा प्रदान कर रहे
हैं। यह पाप है। पहले स्वयं गहन अध्ययन-मनन से निपुणता अर्जित करें, फिर अध्यापन कार्य करें।’ शिष्यों के सम्मुख लज्जा महसूस कर
तुम्हारे पिता अत्यंत कुपित हुए। क्रोध मनुष्य का विवेक हर लेता है। उस समय उसे
उचित-अनुचित का ज्ञान नहीं रह जाता। सो,
क्रोधित पिता ने तुम्हें श्राप दे दिया--‘रे बालक,
तू स्वयं को अधिक ज्ञानी सिद्ध कर अपनी श्रेष्ठता प्रकट करना चाह रहा है ! तू
टेढ़े स्वभाव का है। इसलिए आठ अंगों से टेढ़ा होकर अष्टावक्र कहलाएगा।’ ’’
इतना कहकर
माता थोड़ी देर ठहरीं। फिर अपने आँसू पोंछकर पुनः कहने लगीं, ‘‘जब तेरे जन्म का समय निकट आया, तो एक दिन मैंने तुम्हारे पिता से कहा कि
हम लोग नगर से दूर वन-प्रांत में अकेले हैं। हमारे पास न तो धन है और न आवश्यक
सुविधाएँ। प्रसव के समय धन की आवश्यकता पड़ेगी। क्यों न आप राजा जनक के दरबार में
जाएँ। सुना है वे परम ज्ञानी हैं और ब्राह्मणों का सम्मान करते हैं। वे हमारी
सहायता अवश्य करेंगे।’’
‘‘फिर क्या हुआ, माता ?’’ अब अष्टावक्र की जिज्ञासा बढ़ने लगी।
‘‘मिथिला नरेश जनक के दरबार में वरुण देव का
पुत्र बंदी रहता है। वह शास्त्रार्थ में अत्यंत निपुण, किंतु स्वभाव से अत्यंत दुष्ट है। जब
तुम्हारे पिता दरबार में पहुँचे तो उसने शास्त्रार्थ के लिए ललकारा। वे सहज रूप से
तैयार हो गए। कई प्रहर तक शास्त्रार्थ चलता रहा। अंततः थकान के कारण तुम्हारे पिता
का मस्तिष्क शिथिल हो गया। बस,
इसका लाभ उठाकर उसने उन्हें पराजित कर दिया और अपने अनुचरों से समुद्र में
डुबा दिया।’’
‘‘समुद्र में डुबा दिया ? ऐसा क्यों किया ?’’ अष्टावक्र क्रोध से तमतमा उठा।
‘‘दुष्ट को दुष्टता में ही आनंद आता है, पुत्र। पराजित होनेवाले को समुद्र में
डुबा देने में, हो सकता है
उसकी दुष्टता तृप्त होती हो। अब तक न जाने कितने ज्ञानियों को वह समुद्र की अतल की
गहराइयों में डुबा चुका है।’’
अष्टावक्र उठ
खड़ा हुआ। क्रोध से उसका चेहरा तमतमा उठा;
आँखों में अग्नि धधक उठी; शरीर थरथराने
लगा। उसने दायाँ हाथ उठाकर कहा,
‘‘माता, तेरे आँसुओं
की सौगंध ! वरुण-पुत्र को यदि शास्त्रार्थ में पराजित कर समुद्र में न डुबाया तो
तेरी संतान नहीं !’’
पुत्र की
प्रतिज्ञा सुनकर माता व्याकुल हो उठीं। यद्यपि अल्प वय में ही अष्टावक्र
वेद-वेदांगों का ज्ञाता हो गया था;
उसकी तीक्ष्ण बुद्धि का लोहा बड़े-बड़े ऋषि-मुनि तक मानते थे; किंतु माता के जीवन का वही एक सहारा था।
उसके ज्ञान से आश्वस्त होकर भी उनका मन घबरा रहा था।
सबने
अष्टावक्र को समझाने का लाख प्रयत्न किया,
पर उसने अपना हठ न छोड़ा। आखिरकार उसे मिथिला जाने की अनुमति देनी ही पड़ी। राह
की कठिनाइयों का ध्यानकर महर्षि उद्दालक ने श्वेतकेतु को साथ कर दिया।
दोनों मिथिला
की ओर चल पड़े। अपने शरीर की संरचना के कारण अष्टावक्र को चलने में बहुत कठिनाई होती
थी। वह तेज़ नहीं चल पाता था और जल्दी ही थक भी जाता था। पर आज जैसे उसके भीतर कोई
दैवीय शक्ति प्रवेश कर गई थी। वह बिना थके तेज़ी से बढ़ा चला जा रहा था। यहाँ तक कि
श्वेतकेतु भी उसका साथ नहीं दे पा रहा था।
आखिरकार दोनों
मिथिला पहुँच ही गए। अष्टावक्र पहली बार नगर आया था। कोई और दिन होता तो साफ़-सुथरी
सड़कें, ऊँचे-ऊँचे भवन, व्यवस्थित वाटिकाएँ और सुंदर सरोवर आदि
देखकर उसका हृदय पुलक उठता। पर आज जैसे उसे होश ही नहीं था। वह जल्दी से जल्दी
राजा जनक के महल तक पहुँच जाना चाहता था।
अंततः वह महल
के प्रवेशद्वार पर पहुँच गया। उस समय महल में यज्ञ का अनुष्ठान हो रहा था। इस कारण
द्वारपालों ने उसे बाहर ही रोक लिया। उसकी विचित्रता देखकर एक द्वारपाल ने कहा, ‘‘अरे,
मूर्ख अष्टावक्री बालक, दूर हट !
जानता नहीं इस समय यज्ञ चल रहा है। तुझे अगर भिक्षा चहिए तो बाद में आना।’’
उस समय अष्टावक्र
का शरीर द्वारपालों के लिए कौतुक का कारण तो था ही, यात्रा की थकान ने उसका चेहरा भी विरूप कर दिया था। रही-सही
कसर उसकी क्रोधी भंगिमा पूरी कर रही थी। कुल मिलाकर वह द्वारपालों के लिए मनोरंजन
का साधन बन गया। वे उसके टेढ़े-मेढ़े शरीर को देखकर उसका उपहास करने लगे।
तभी राजा जनक
अपने दरबारियों सहित उधर आ निकले। द्वार पर होती हलचल देखकर उन्होंने पूछा, ‘‘यह अशांति कैसी ? वहाँ क्या हो रहा है ?’’
तभी उनकी
दृष्टि अष्टावक्र पर पड़ी। उसका विचित्र
शरीर देखकर साथ खड़े दरबारी हँसने लगे।
अष्टावक्र को
बहुत क्रोध आया। वह गरजती हुई आवाज़ में बोला,
‘‘अरे, महाराज, मैंने तो सुन रखा था कि आपके दरबार में
बड़े-बड़े ज्ञानी-विद्वान रहते हैं;
संपूर्ण सृष्टि जिनके लिए हाथ पर रखे आंवले के समान है; जिन्हें सृष्टि के रहस्यों के आर-पार
दिखता है। किंतु यहाँ तो सभी मुझे चर्मकार नज़र आते हैं, जिनकी दृष्टि शरीर के दर्शन से आगे ही
नहीं बढ़ पा रही।’’
अष्टावक्र की
ओजपूर्ण वाणी सुनकर राजा जनक बहुत प्रभावित हुए। उन्होंने क्षमा माँगते हुए कहा, ‘‘हे,
ब्राह्मण देवता, बालक के वेश
में आप निश्चित ही कोई सिद्ध पुरुष हैं। हमारे सेवकों की धृष्टता क्षमा करें।
किंतु नियमानुसार बिना ज्ञान-परीक्षण के आपको यज्ञ-मंडप में प्रवेश नहीं दिया जा
सकता। अतः आप हमारे प्रश्नों का उत्तर देने का कष्ट करें।’’
राजा जनक
पूछने लगे, ‘‘सोते समय कौन
आँखें बंद नहीं करता ? किसमें जन्म
के पश्चात गति नहीं होती ? किसके पास
हृदय नहीं होता ? वेग के कारण कौन
बढ़ता है ?’’
अष्टावक्र ने
तत्काल उत्तर दिए, ‘‘हे, राजन, सोते समय मछली आँखें नहीं बंद करती। जन्म के पश्चात अंडे
में गति नहीं होती। पाषाण के पास हृदय नहीं होता और वेग के कारण नदी बढ़ती है।’’
अष्टावक्र के
उत्तर से राजा जनक चकित रह गए। इतना छोटा बालक और इतना गहन ज्ञान। उन्होंने कठिन
से कठिन प्रश्न पूछे। अष्टावक्र हर प्रश्न का उत्तर देता गया। अंततः उसकी विद्वता
के प्रति निश्चिंत होकर राजा जनक ने उसे यज्ञ-मंडप में प्रवेश की अनुमति प्रदान कर
दी।
अनुमति पाते
ही अष्टावक्र दौड़ता हुआ यज्ञ-मंडप में प्रवेश कर गया। पीछे-पीछे श्वेतकेतु भी दौड़
गया। दो बालकों को यज्ञ-मंडप में प्रवेश करते देखकर सभी उनकी ओर आश्चर्यमिश्रित
जिज्ञासा से देखने लगे। अष्टावक्र गरजकर बोला, ‘‘इस मंडप में वरुण-पुत्र बंदी कौन है ? सामने आए ! मैं उसे शास्त्रार्थ के लिए
ललकारता हूँ।
उसकी ललकार सुनकर
बंदी उठ खड़ा हुआ। गौर वर्ण, तन पर रेशमी
वस्त्र, सिर पर मुकुट और
प्रभामय मुखमंडल। वह रोषपूर्ण वाणी में बोला,
‘‘रे, अविनयी बालक, लगता है शरीर की भाँति तेरा मस्तिष्क भी
वक्र है। विद्वानों के साथ इस तरह अशिष्टता से बात की जाती है ? क्या तेरे पिता ने यही संस्कार दिए हैं ?’’
‘‘हाँ,
अपने पिता की मृत्यु का बदला ही तुझसे लेने आया हूँ। आज तुझे शास्त्रार्थ में
पराजित कर और समुद्र में डुबाकर अपनी माता के कष्टों का हरण करूँगा।’’
‘‘उद्दंड बालक, लगता है तुझे भी अपने पिता के पास जाने की
शीघ्रता है। यदि तुझे अपने ज्ञान पर इतना ही घमंड है, तो मैं तेरे सम्मुख शास्त्रार्थ को
प्रस्तुत हूँ।’’
दोनों
आमने-सामने आ बैठे। विद्वानों की भीड़ स्तब्ध होकर सारी घटना देखने लगी।
बंदी ने
प्रश्न पर प्रश्न पूछने आरंभ किए और अष्टावक्र उनका सटीक उत्तर देने लगा।
‘‘जीवन और मृत्यु में कौन अधिक शक्तिशाली है
?’’
‘‘जीवन, क्योंकि उसे तमाम कष्ट और आपदाएँ सहनी पड़ती हैं।’’
‘‘संख्या में कौन अधिक हैं--जीवित या मृत ?’’
‘‘जीवित, क्योंकि मृत की संख्या का अनुमान नहीं किया जा सकता।’’
‘‘सबसे अधिक जीव कहाँ उत्पन्न होते
हैं--भूमि पर अथवा समुद्र में ?’’
‘‘भूमि पर, क्योंकि समुद्र भी भूमि का ही एक हिस्सा है।’’
‘‘मनुष्य ईश्वर कैसे बन सकता है ?’’
‘‘ऐसे कार्य करके, जो मनुष्य के लिए संभव न हों।’’
अष्टावक्र
बंदी के हर प्रश्न का उत्तर देता गया। विद्वानों का समूह बालक की प्रतिभा से
चमत्कृत रह गया। स्वयं बंदी ने भी इतना विद्वान अपने जीवन में नहीं देखा था। वह
आक्रांत होकर अपना तेज खोने लगा। उसकी जीभ लड़खड़ाने लगी। तन-मन पर शिथिलता प्रभावी
होने लगी। धीरे-धीरे उसके प्रश्नों का भंडार समाप्त होने लगा। उसने अंतिम अस्त्र
के रूप में यह अधूरा श्लोक कहकर उसकी पूर्ति करने को कहा--
‘‘त्रयोदशी तिथिरुक्ता प्रशस्ता, त्रयोदशा द्वीपवती मही च।’’
अर्थात तेरह
की तिथि उत्तम बताई गई है तथा यह पृथ्वी तेरह द्वीपों से युक्त है।
अष्टावक्र ने
फौरन श्लोक की पूर्ति कर दी--
‘‘त्रयोदशा हानि ससार केशी, त्रयोदशदीन्यतिच्छन्दांसि चाहुः’’
तात्पर्य यह
कि केशी नाम के दानव ने भगवान विष्णु के साथ तेरह दिनों तक युद्ध किया था और वेदों
के अति विशिष्ट छंद तेरह अक्षरों से युक्त हैं।
सटीक पूर्ति
सुनकर बंदी मौन हो गया। अब उसमें प्रश्न पूछने की शक्ति न रही। उसने पराजय की
लज्जा से सिर झुका लिया।
उपस्थित
विद्वानों का समूह वाह-वाह कर उठा। स्वयं राजा जनक अष्टावक्र की प्रशंसा में उठ
खड़े हुए और कहा, ‘‘हे ब्राह्मण
देवता, आप बालक होकर भी इतने
विद्वान हैं। ऐसी विद्वता मैंने न कहीं देखी,
न कहीं सुनी। आपका दर्शन पाकर मैं धन्य हो गया।’’
राजा जनक के
प्रशंसापूर्ण शब्दों को सुनकर भी अष्टावक्र को संतोष न हुआ। वह बोला, ‘‘राजन, मैं अपनी माता को वचन देकर आया हूँ कि इस दुष्ट को पराजित
करके समुद्र में डुबाऊँगा और इस प्रकार अपने पिता की मृत्यु का बदला लूँगा। अतः
मुझे वचन-पालन की अनुमति प्रदान करें।’’
राजा जनक इससे
पहले कि कुछ कहते, बंदी सिर
झुकाए स्वयं सामने आ गया और बोला,
‘‘इसके लिए मैं स्वयं प्रस्तुत हूँ राजन। किंतु क्या आप लोग यह जानना नहीं
चाहेंगे कि मैं विद्वानों को पराजित करके समुद्र में क्यों डुबाता था ?’’
सारी सभा
उत्सुक हो उठी। स्वयं अष्टावक्र भी उदग्र होकर सुनने लगा।
बंदी बताने
लगा, ‘‘राजन, यहाँ के समान वरुण-लोक में भी एक यज्ञ का
अनुष्ठान हो रहा है। मेरे पिता को अनुष्ठान के लिए विद्वानों की आवश्यकता थी। अतः
मैं विद्वानों को पराजित करके समुद्र में डुबा देता था। किंतु अब उनका यज्ञ पूर्ण
हो गया है। शीघ्र ही सारे विद्वान सकुशल वापस आते होंगे।’’
बंदी अभी कह
ही रहा था कि तभी अष्टावक्र के पिता कहोड सहित सारे विद्वान वहाँ उपस्थित हो गए।
पिता ने पुत्र को पहचान लिया। वे दौड़कर उससे लिपट गए। सारी बात पता चली तो उनकी
आँखों से आँसू बहने लगे।
पिता-पुत्र का
अद्भुत मिलन देखकर सबकी आँखें भर आईं।
अंततः राजा जनक
से आज्ञा लेकर कहोड, अष्टावक्र और
श्वेतकेतु को लेकर वापस लौट चले।
राह में समंगा
नदी पड़ी। पिता ने कहा, ‘‘पुत्र, तुझे श्राप देकर मैं पश्चाताप की अग्नि
में जल रहा हूँ। मैं इसका प्रायश्चित करना चाहता हूँ। तू इस नदी में प्रवेश कर।’’
अष्टावक्र ने
पिता की आज्ञा शिरोधार्य की और तन को संभालते हुए नदी में प्रवेश किया। किंतु जैसे
ही शरीर से जल का स्पर्श हुआ, मानो कोई जादू
हो गया। अष्टावक्र के टेढ़े-मेढ़े अंग फौरन ही स्वस्थ और सुडौल हो गए। अष्टावक्र
चकित रह गया। उसकी प्रसन्नता का ठिकाना न रहा। श्वेतकेतु भी हैरानी से उछल पड़ा।
कहोड मंद-मंद मुस्कराते रहे।
कुछ समय
पश्चात तीनों प्रसन्नता पूर्वक आश्रम की ओर वापस लौट चले।
(कहानी एवं चित्र, चिल्ड्रेन बुक ट्रस्ट द्वारा
प्रकाशित ‘बहुरंगी
कहानियाँ’ से साभार)
Waah !!!!!
ReplyDeleteबहुत ही अच्छी कहानी। अरशद भाई आप ब्लाग लेखन करते रहिए। पिछली बार मैंने कुछ गलतियां की थीं। जिसकी वजह से बहुत लंबा सफर करना पड़ रहा है। हो सकता है कि मुझे फिर से मेहनत करनी पड़े। अब गूगल भी हिंदी को सपोर्ट करने लगा है। ब्लाग पोस्ट करते रहें। जब ब्लाग छह माह पुराना हो जाए तो बताइएगा।
ReplyDeleteपौराणिक आख्यान को आपने बेहद कुशलता से बालमनोविज्ञान के अनुरूप ढाला है। बधाई।
ReplyDeleteबहुत अच्छी कहानी!
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