रात का पहला पहर। झेलम का
विस्तृत तट घने अंधकार में विलीन होकर भयावह हो रहा था। बादल घिरे होने के कारण
अंधकार गाढ़ा होकर झुका आता-सा लगता था। हवा एकदम ठप थी। पूरे वातावरण में एक
आशंका-सी तैर रही थी। बादलों का गर्जन जैसे किसी अनिष्ट की घोषणा करता हुआ-सा लग रहा
था। बिजली रह-रहकर किसी तलवार की भाँति लपलपाती हुई आसमान के इस छोर से उस छोर तक
खिंच जाती थी।
इस क्षणिक प्रकाश में
सैन्य-स्कंधावार के द्वार पर एक योद्धा की झलक एकाएक दिख जाती थी। ऊँचा मस्तक, दृढ़ निश्चय से भरी आँखे, सिर पर चौड़े किनारों वाली टोपी, कमर से लटकती तलवार और पैरों में
ऊँचे जूते--मानो किसी विजय-अभियान के लिए तत्पर खड़ा हो। क्षणिक प्रकाश में अपना
अस्तित्व प्रकट करके वह पुनः उसी अँधकार का अंग बन जाता था। द्वार पर खड़ा वह बड़ी
देर से जाने किस आत्मचिंतन में डूबा हुआ था।
“व्यवधान के लिए क्षमा करें, सम्राट,” तभी सैनिक वेश में एक व्यक्ति
निकट आकर बोला, “इतनी देर से आप किस चिंता में
मग्न है?”
“कौन....? सेनापति टालेमी,” वह जैसे नींद से जागा।
“हाँ, विश्वविजेता सम्राट सिकंदर,”
टालेमी अभिवादन
में झुकता हुआ बोला,
“सुरक्षा की
दृष्टि से इस अंधकार में आपका अकेले खड़ा होना उचित नहीं है।”
“तुम्हारी चिंता स्वाभाविक है, सेनापति। किंतु मेरा चित्त स्थिर
नहीं है। आज जैसा संशय और ऊहापोह मेरे मस्तिष्क में चल रहा है वैसा फारस (ईरान) के विशाल सम्राज्य को जीतने में
भी नहीं हुआ।”
“कैसा संशय सम्राट?”
सिकंदर ने लंबी साँस खींची। थोड़ी
देर चुप रहा। फिर जैसे अपने आप से कहने लगा, “तक्षशिला के राजा आम्भीक ने बिना किसी शर्त समर्पण कर दिया है। मैं यह सोचकर
प्रसन्न हुआ कि उसने मेरी शक्ति के आगे सिर झुका दिया। पर सच्चाई यह नहीं है।
वास्तव में वह पोरस की बढ़ती शक्ति से आक्रान्त होकर मेरी सहायता चाहता है। उसने
पाँच हजार भारतीयों की सेना भी सहायतार्थ भेजी है।”
“तो फिर संशय कैसा, सम्राट? यह स्थिति तो हमारे लिए और भी
अनुकूल है। हमारी संयुक्त शक्ति के आगे पोरस तत्काल नतमस्तक हो जाएगा।”
“मैने भी यही सोचा था। पर यह
देखो...,” सिकंदर के हाथ में एक संदेश झूल
रहा था, “आत्मसमर्पण के प्रस्ताव के उत्तर
में उसने लिखा है कि इसका निर्णय रणक्षेत्र में होगा।”
“लगता है भगवान जीयस हम पर कृपालु
हैं,” टालेमी के चेहरे पर मुस्कान चमक
उठी, “वीरों के लिए युद्ध से बढ़कर कोई
उत्सव नहीं होता। मालूम होता है जल्द ही हमारी तलवारों की प्यास बुझेगी।”
“सच कहते हो सेनापति, किंतु न जाने क्यों मेरे मन में
संशय है.....”
तभी जोरदार गर्जन हुआ और आसमान झरने लगा। हवा थपेड़े ले-लेकर बहने
लगी। झेलम के जल में उठने वाली ऊँची-ऊँची लहरें आपस में टकराकर भयानक शोर उत्पन्न
करने लगी। इसी बीच स्कंधावार से ढोल-नगाड़ों और गीत-नृत्य की ध्वनि आने लगी। बादलों
के गर्जन-तर्जन के बीच ढोल-नगाड़ों की ध्वनि वातावरण में एक आशंकापूर्ण भय की
सृष्टि करने लगी।
इससे पहले कि सिकंदर और टालेमी कुछ समझते, पर्डिक्कस लगभग दौड़ता हुआ उधर
आया।
“सम्राट, आप यहाँ हैं, मैं शिविर में ढूँढकर थक गया,” पर्डिक्कस हाँफ रहा था।
“किंतु ये शोरगुल कैसा है? किसने आज्ञा दी इस नाच-रंग की,” सिकंदर की भौहें टेढ़ी होने लगीं।
“क्षमा करें सम्राट, मैंने,” पर्डिक्कस झुकता हुआ बोला, “यही रणनीति है। झेलम के उस पार
पोरस की सेना समझेगी कि गरमी और उमस से त्रस्त यवन सैनिक उल्लास और उत्सव में डूबे
हुए हैं और इस बीच हम अपना काम कर गुज़रेंगे। यहाँ से सोलह मील दूर हमने एक ऐसे
स्थान का पता लगा लिया है,
जहाँ झेलम का
पानी उथला है। इस गर्जन-तर्जन के बीच हमारी सेना उस पार उतर जायेगी और किसी को खबर
भी नहीं होगी। हमारे ग्यारह हजार चुने हुए सैनिकों की टुकड़ी आपके आदेश की
प्रतीक्षा कर रही है। ”
“पर्डिक्कस, हमें तुम्हारी योग्यता पर पूरा
भरोसा है। सिंधु नदी पर पुल बाँधने में तुमने और हेफस्तियान ने जिस कुशलता का
परिचय दिया था, उससे मेरा विश्वास और दृढ़ हुआ
है। लेकिन........”
“लेकिन क्या सम्राट.............” पर्डिक्कस चौंका।
सिकंदर कुछ कहने को हुआ, पर एकाएक चुप हो गया। घनघोर
वर्षा में भीगती तीनों मूर्तियों के बीच कुछ पलों के लिए निस्तब्धता छा गई। सिर्फ
बूंदों की तड़तड़ाहट,
झेलम की लहरों
का संघात और ढोल-नगाड़ों की आवाज़ गूँजती रही।
“मैं आपकी मनः स्थिति समझ सकता
हूँ, सम्राट,” एकाएक पर्डिक्कस ने जैसे कुछ
समझते हुए कहा, “यह कार्य युद्ध नीति के प्रतिकूल
है, लेकिन युद्ध में विजय महत्वपूर्ण
होती है, नियम और नीति नहीं। संसार सिर्फ
विजेता को याद रखता है,
हारने वाले की
ईमानदारी, सत्यनिष्ठा, वीरता सब भुला दी जाती है।”
“लेकिन पार्डिक्कस, मैं कैसे इस अभियान की आज्ञा
दूँ। तुम्हें याद होगा..........”
सिकंदर के
नेत्र शून्य की ओर उठ गए,
“ईरान के सम्राट
डेरियस से युद्ध के समय भी सबने यही सलाह दी थी कि हमारी सेना रात्रि के अंधकार
में आक्रमण करे, क्योंकि दिन के प्रकाश में उसकी
विशाल सेना देखकर हमारे सैनिक भयभीत हो सकते थे। लेकिन मैंने ऐसा नहीं किया; क्योंकि यह युद्ध-नीति के
प्रतिकूल था। अंततः भगवान जीयस हमारे साथ रहे। हमने विजय प्राप्त की।
पर्डिक्कस का सिर झुक गया। कुछ
क्षण सभी मौन रहे।
तभी टालेमी आगे बढ़कर आया और बोला, “लेकिन सम्राट, वर्षा के कारण बढ़ी हुई झेलम और
उससे भी अधिक प्रबल पोरस की सेना का सामना करके उस पार उतरना इन परिस्थितियों में
असंभव है। यह आप जैसे अनुभवी योद्धा को बताने की आवश्यकता नहीं।”
“हाँ सम्राट,” पर्डिक्कस बोला, “अगर इस अभियान में विजय प्राप्त
नहीं हुई, तो अब तक अर्जित सारी कीर्ति धुल
जाएगी!”
“और सम्राट का विश्वविजेता बनने
का स्वप्न चूर-चूर हो जाएगा!”
“संसार जीयस के पुत्र का उपहास
करेगा!”
सिकंदर मौन हो रहा। उसका मौन ही
उसकी स्वीकृति का संकेत थी।
पर्डिक्कस और टालेमी अभियान की
तैयारियाँ करने चले गए। सिकंदर अकेला खड़ा रह गया। स्कंधावार से उठती ढोल-नगाड़ों की
ध्वनि पूरे वातावरण पर छा गई। अँधेरा जैसे कुछ और गाढ़ा हो गया था।
बादलों के घोर गर्जन और रह-रहकर
तड़पती बिजलियों के बीच सिकंदर की ग्यारह हजार कुशल एवं प्रशिक्षित सैनिकों की
टुकड़ी झेलम के उस पार उतर गई।
पोरस के स्कंधावार पर तैनात
व्याधों के कुत्ते तट पर होती हलचल का अनुमान कर भौंकने लगे। ऊँघ रहे व्याध सजग हो
उठे। उन्होंने मशालें जलाकर तूर्य बजाना आरंभ कर दिया। सोए हुए सैनिक हड़बड़ाकर उठ
बैठे और अपने अस्त्र-शस्त्र सहेजने लगे।
उस समय स्कंधावार में पोरस के
पुत्र राजकुमार पौरव के नेतृत्व में मात्र दो हजार सैनिक और एक सौ बीस रथ मौजूद
थे। निश्चित रूप से यह संख्या अपर्याप्त थी। किंतु राजकुमार घबराया नहीं। उसने
सैनिकों को एकत्रित करके कहा,
“भारतीय वीर
युद्ध के लिए हर समय प्रस्तुत रहता है। हम संख्या में कम अवश्य हैं, किंतु शत्रु की ईंट से ईंट बजा
देने के लिए पर्याप्त हैं। हम रण में अपना सिर कटा देंगे; किंतु पीछे नहीं हटेंगे।”
सैनिकों ने गगनभेदी उद्घोष किया
और अपनी तलवारें संभालकर युद्ध के लिए तैयार हो गए।
थोड़ी ही देर में झेलम के तट पर
घमासान युद्ध आंरभ हो गया। बीस वर्षीय राजकुमार ने सिंकदर की अनुभवी और अपेक्षाकृत
विशाल सेना का डटकर मुकाबला किया। भारतीय वीरों ने अपनी तलवार के जौहर से सिकंदर
का आत्मविश्वास डिगा दिया। उसका प्रिय घोड़ा बुकाफेलस भी इस युद्ध में मारा गया। यह
घोड़ा उसे बहुत प्रिय था। इसके बल पर उसने जाने कितने युद्ध जीते थे। यह उसके लिए
अपूर्णनीय क्षति थी।
लेकिन युद्ध का परिणाम तो पहले
से तय था। कहाँ ग्यारह हजार दुर्दांत सैनिक और कहाँ दो हजार भारतीय वीर। राजकुमार
सैनिकों सहित लड़कर वीरगति को प्राप्त हुआ। अंततः यवन-सेना ने अपनी विजय-ध्वजा गाड़
दी।
पोरस तक सूचना पहुँची तो वह
क्रोध से हुंकार उठा। तलवार खींचकर गरजता हुआ बोला, “विश्वासघाती सिकंदर,
तूने भले ही
संसार को पराजित किया होगा,
पर आज तुझे
भारतीयों की वीरता का स्वाद चखना होगा। मैं इस भूमि की सौगंध खाकर कहता हूँ कि
तेरी विश्वविजय का स्वप्न चूर-चूर कर दूँगा।”
“महाराज......” तभी घबराए हुए सेनापति ने प्रवेश
किया, “अभी-अभी सूचना मिली है कि अभिसार
के राजा ने हमारी सहायता से इंकार कर दिया है।”
“और मगध के महाराज नंद ने?”
“वे उदासीन हैं। उन्होंने हमारी
बातचीत का कोई उत्तर नहीं दिया है। इसे उनका इंकार ही समझिए। राजा आम्भीक और
शशिगुप्त तो प्रकट रूप से यवन-सम्राट के साथ हैं।”
“इससे कोई फर्क नहीं पड़ता, सेनापति। युद्ध सदैव अपने भुजबल
से लड़ा जाता है। जाओ,
युद्ध की
तैयारी करो।”
कुछ ही समय पश्चात कर्री के
रणक्षेत्र में दोनों सेनाएँ आमने-सामने खड़ी थीं। पोरस की 50 हज़ार पैदल, 3 हज़ार अश्वारोही, 1300 रथ और 130 हाथियों की सेना देखकर सिकंदर
दहल गया। कुछ पलों के लिए उसका विश्वास डोल गया।
पोरस की व्यूह-रचना भी अनोखी थी।
उसने सामने हाथियों को खड़ा कर दिया था,
जबकि अगल-बगल व
पीछे पैदल सेना थी। दोनों पार्श्वों में अश्वारोही और उनके सामने रथ खड़े थे।
थोड़ी ही देर में घमासान युद्ध आरंभ
हो गया। योद्धाओं की हुंकारों और कराहों से आकाश गूँज उठा। हाथियों के दौड़ने से
भूमि ऐसे डोल उठी मानो भूचाल आ गया हो। मैदान रक्त से लाल हो उठा।
किंतु आज भाग्य सचमुच सिकंदर के
साथ था। पोरस को जिन रथों और धनुर्धरों पर पूरा भरोसा था आज वे असफल सिद्ध हो रहे थे।
बारिश से हुए कीचड़ और दलदल में रथों के पहिए बार-बार धँस जा रहे थे। पोरस के
धनुर्धरों से शत्रु-सेना सदैव भयभीत रहती थी। मनुष्य के बराबर ऊँचाई वाले धनुष और
तीन गज लंबे नाराचों (लोहे के बाणों) को रोक पाना शत्रु की सामर्थ्य के बाहर होता
था। धनुर्धर धनुष का एक सिरा पैरों से दबाकर प्रत्यंचा खींचकर बाण छोड़ते थे। किंतु
आज बारिश के कारण उनके धनुष स्थिर नहीं हो पा रहे थे और लक्ष्य से भटक जा रहे थे।
सिकंदर के धूर्त मस्तिष्क ने इस
अवसर का लाभ उठाते हुए हाथियों की सेना को अपना लक्ष्य बनाया। उसके धनुर्धर उनकी आँखों
को लक्ष्यकर बाण छोड़ने लगे। कुछ दुस्साहसी सैनिक निकट जाकर फरसों से हाथियों के पैरों
पर वार करने लगे। इससे हाथी भड़क कर भागने लगे और अपनी ही सेना को कुचलने लगे। पोरस
की सेना त्रस्त हो गईं। चारों तरफ भगदड़ मच गई।
किंतु पोरस अपने हाथी पर सवार
पूरी शक्ति से युद्ध करता रहा। अपनी सेना के तितर-बितर हो जाने पर भी वह पूरे
आत्मविश्वास के साथ युद्ध-भूमि में डटा हुआ था। सिकंदर हतप्रभ था। उसने ऐसा
असाधारण वीर अपने जीवन में नहीं देखा था।
बहुत देर तक युद्ध करने के पश्चात अंततः पोरस मूर्च्छित होकर हाथी
से गिर पड़ा और बंदी बना लिया गया।
बेड़ियों में जकड़कर उसे सिकंदर के
सामने प्रस्तुत किया गया। लम्बा-चौड़ा शरीर, उन्नत ललाट, आत्मविश्वास से दीप्त आँखें......
लगता था किसी शेर को विवश कर बेड़ियों में जकड़ दिया गया हो। एक हारे हुए राजा की
भाँति उसमें न तो दीनता थी और न ही भय। अपितु भरी सभा में वह शत्रुओं के सम्मुख
तना हुआ खड़ा था।
“पोरस,” सिकंदर ने कहा,
“तुम पराजित हो
चुके हो।”
पोरस कुछ नहीं बोला, पर उसकी आँखों में जैसे आग भभक
उठी।
“लेकिन मैं वीरता का सम्मान करता
हूँ,” सिकंदर आगे बोला, “तुम वीर हो और तुम्हें तुम्हारा
अधिकार मिलना ही चाहिए। माँगो,
आज दानी सिकंदर
ह्रदय खोलकर बैठा है। जो चाहो माँग लो।”
“हः ......” पोरस उपेक्षा से हँसा, “जो अकिंचन संसार को लूटकर अपना
कोष भरने चला हो, वह भला किसी को क्या दे सकता है?”
“दे सकता है, बहुत कुछ दे सकता है,” सिकंदर के चेहरे का रंग बदलने
लगा, “तुम्हें तुम्हारा राज्य दे सकता
है........ तुम्हें जीवन की भीख दे सकता है !”
“अपमान भरे जीवन से गौरवपूर्ण
मृत्यु भली है, यवन सम्राट। इसके लिए मैं
प्रस्तुत हूँ” पोरस ने छाती तान कर कहा। उसकी
आँखों में जरा भी भय नहीं था।
“तुम बहुत दुस्साहसी हो, पोरस। तुम्हें भय नहीं लगता ?”
“भय....... इस शब्द से हम
भारतीयों का अपरिचय है,
सम्राट। हम
कायरों की तरह बार-बार नहीं मरते। जब तक जीते हैं गर्व के साथ जीते हैं।”
“तुम्हें पता है, तुम्हारे जैसे पराजित राजा के साथ
मुझे कैसा व्यवहार करना चाहिए?”
सिकंदर ने पूछा।
“हाँ, जैसा एक राजा दूसरे राजा के साथ करता है।”
पोरस की वीरता और साहस से सिकंदर
हतप्रभ था। आज वह जीतकर भी खुद को हारा हुआ महसूस कर रहा था। पोरस की आँखों से
आँखें मिलाने की हिम्मत उसमें न थी। आत्मग्लानि से उसका सिर झुक गया।
इस भारतीय वीर से सामना होने के
पश्चात सिकंदर और उसकी सेना को आगे बढ़ने की हिम्मत न पड़ी। पोरस का राज्य वापस करके
वह वापस लौट गया। इस तरह एक विश्व विजेता का विजय-अभियान थम गया।
बहुत ही बेहतरीन और प्रेरणादायी कहानी है।
ReplyDeleteबेहद शुक्रिया जमशेड भाई
Deleteवाह! उत्तम!!
ReplyDeleteधन्यवाद भाई
Deleteभाषा सौंदर्य से भरपूर वीरों की गाथा कहती हुई उत्तम कहानी .
ReplyDeleteउत्साहवर्द्धन और आशीर्वाद के लिए आपका आभार
Deleteअच्छी प्रस्तुति।बधाई।
ReplyDeleteबेहद शुक्रिया
DeleteSweet story
ReplyDeleteबेहद शुक्रिया
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