Saturday 5 September 2020

पेड़ हैं तो रंग हैं

 

पात्र-परिचय:

                                    मैना, तोता, गिलहरी, बंदर, कौआ, चींटी, बादल              

                                                (सभी लगभग 6-7 वर्ष के बालक-बालिकाएँ)

                                    नेपथ्य से आनेवाली आवाज़

                                                (प्रौढ़ पुरुष की गंभीर आवाज़)

 


(मंच पर हरे पत्ते और डालियाँ बिखरी पड़ी हैं। बीचों-बीच अभी-अभी काटे गए हरे-भरे पेड़ के तने का ठूँठ है। पर्दा उठने के साथ ही हवा के झोंके से मंच पर पड़े पत्ते उड़ते हैं। साथ ही करुण स्वरों में हल्का-हल्का संगीत बजता है। नेपथ्य से वेदना भरी आवाज़ आती है-)

 

वह जो पूरी रात ठिठुरकर पहरेदारी करता था,

वह जो रिमझिम बारिश में छतरी बन जाया करता था,

वह जो कड़ी धूप में तपकर हमको देता था छाया,

जिसके नीचे हम सबने था अपना संसार बसाया,

जहाँ पिघलती हुई चाँदनी पत्तों से यों झरती थी,

नदी एक सपनों की जैसे कल-कल कल-कल बहती थी,

जिसके साए में हम सोए जागे खेले बड़े हुए,

पाते थे जिसको हम अपने साथ हमेशा खड़े हुए

कहाँ गया वह अपना साथी, अपना हमदम?

आँखें उसको ढूँढ रही हैं।

साँसें उसको तड़प रही हैं।

कहाँ गया वह?

कहाँ गया वह?

 

(आवाज़ प्रतिध्वनित होकर गूँजने लगती है। मंच पर मैना का वेश धारण किए हुए एक लड़की का प्रवेश)

मैना    : देखो, देखो, भरी दुपहरी कैसा अँधियारा छाया है! किरनों की छाया में छिपकर कैसे साए उतर रहे हैं। कहाँ गया वह हरा-भरा-सा आसमान? जिस आसमान में फूलों के चंदा-सूरज थे, जुगनू के तारे थे, कबूतरों का झुंड सफेद बादलों-सा मँडराता था। पर अब क्यों है सब रेत-रेत-सा? साँसें क्यों थमी-थमी-सी जाती हैं? धड़कन क्यों हैं रुकी-रुकी-सी? आँखें हैं क्यों बुझी-बुझी-सी? थककर चूर हुए तन को अब कौन सहारा देगा आखिर? दुनिया हमें सताएगी तो हमको कौन बचाएगा? बारिश की छत कौन बनेगा? कौन भला लोरी गाएगा? किससे पूछूँ? कौन बताए? कहाँ गया वह मेरा घर?                                           

 

(मंच पर तोते के वेश में एक लड़के का प्रवेश)

तोता   : जब मैं बच्चा था, नन्हा-सा। कोटर की उस नरम गोद में सोता-जगता रहता था। अभी नहीं खुली थी आँखें मेरी। माँ के आने की आहट पर बस मुँह को खोल चहकता था। माँ जब दाने लेने जाती थी तब भी मैं कहाँ अकेला था? कोटर की गर्माहट भी तो माँ के पंखों जैसी ही लगती थी। और कभी जब पंख तौलने डालों    पर आ जाता था, तो कौए की काँव-काँवसुन सिहर-सिहर उठता था। तब वह अपनी बाहें फैलाकर हमें समेट लेता था, जैसे माँ हमको दुलराती थी।

 

(मंच पर गिलहरी के वेश में एक लड़की का प्रवेश)

गिलहरी : मैं चिक-चिककरके गाती थी। नीचे-ऊपर, ऊपर-नीचे बेमकसद की उधम-उछल। कभी यहाँ पर, कभी वहाँ पर, इधर-उधर जो दाने-दुनके मिल जाते थे, अपने दोनों हाथों में लेकर कुटुर-कुटुरमैं खाती थी। मुझे देख वह खिल-खिल हँसता। पत्तों को लहरा-लहराकर अपनी ख़ुशी जताता था। सूरज की गर्मी से कुम्हलाकर जब उसका चेहरा लटका होता। झुकी टहनियाँ, सूखे पत्ते, रूखे तन के रेशे होते। तब मैं उसके तन पर अपनी पूँछ फिराती। नन्हे पंजों से तन पर गुदगुदी मचाती तब वह सारे दुख बिसराकर हँस पड़ता था। फिर वह अपनी डाल हिलाकर, पत्तों-पत्तों को लहराकर ठंडी हवा चलाता था।

 

(मंच पर बंदर के वेश में एक लड़के का प्रवेश)

बंदर    : वह तो था मैदान हमारे खेल-कूद का। उसकी डालों पर उछल-कूदकर हम जमकर मौज मनाते थे। कच्चे-पक्के फल भी ढेरों खाते और गिराते थे। डालें और पत्तियाँ भी हम बिन हिचके तोड़ गिराते थे। पर वह कभी नहीं उफ करता था। अपनी डालों पर हम सबका बिस्तर सदा सजाता था। बारिश में हम भीग-भीगकर छिपने दौड़े आते थे। सर्दी की रातों में जब चारों ओर कुहासा घिरता, घनघोर हवाएँ हड्डी तक में घुस जातीं, तब उसकी गोदी में छिपकर हम सब रात बिताते थे।

 

(मंच पर कौए के वेश में एक लड़के का प्रवेश)

कौआ   : मैं कौआ हूँ। मुझे देखकर सब चिढ़ते हैं। मेरा काला रंग सभी की आँखों में चुभता है। मेरी कर्कश काँव-काँवसे जब मुझ पर पत्थर आते थे, तो मैं पत्तों में छिपकर अपनी जान बचा लेता था। ख़ुद पर सारे पत्थर सहकर वह हमें बचाया करता था। उसके सूखे तिनकों से हम अपना नीड़ बनाते थे। उसकी डालों पर हम सब फुदक-फुदक इतराते थे। वह बेफिक्री, वह सुकून, वह अपनापन कौन हमें अब देगा? अब पत्थर की चोट सहनकर कौन हमें दुलराएगा? कौन हमारे नीड़ों को अब अपने सूखे तिनके देगा?

 

(मंच पर चींटी के वेश में एक लड़की का प्रवेश)

चींटी   : मैं अपने नन्हे-नन्हे क़दमों से चोटी पर चढ़ जाती थी, तो अपनी आँखों में पूरा आकाश समा लेती थी। दूर गगन में उड़ते बादल मुझे देखकर ख़ुश होते थे। हवा थपकियाँ दे-देकर मुझको सहलाती थी। और बसंत में जब फूलों से डालें लदर-बदर हो जाती थीं। तब भौरों और तितलियों के संग हम भी जी भर रस पीते थे। पके फलों पर देख हमें जब मिट्ठू हम पर चिल्लाता था। तब वह कहता--लड़ो नहीं, मेरे सारे फल तुम सबके ही हैं। जैसे चाहो खाओ। अपने मित्र बुलाओ। उनको भी चखवाओ। पर बच्चे शैतान कभी जब ढेले लेकर आ जाते थे। तो पत्थर की चोट सहनकर, पीड़ा से सिसकारी भरकर पके हुए फल टपका देता था। कहता--काश, हमारी डालें थोड़ा और जो झुक पातीं तो इनको भी आसानी होती। उसकी मज़बूत जड़ों में ही तो अपना घर था। जब बारिश में पानी भरता तो अंडे लेकर हम ऊपर चढ़ जाते थे, और किसी खोखल में भूरे-लाल चींटों से छिपकर अपना समय बिताते थे।

 

(मंच पर बादल के वेश में एक लड़के का प्रवेश)

बादल  : कहाँ गया वह मीत हमारा? जेठ-आषाढ़ की कड़ी धूप में, तपते झोंकों से कुम्हलाई धरती को बेचैन देखकर वह कितना व्याकुल होता था। फिर वह धरती का संदेशा मस्त हवाओं के झोंकों से हमें समंदर तक पहुँचाता था। हम आलसियों की नींद टूटती। अपना भूला कर्तव्य याद आता। हम पानी के गगरे भरकर गिरते-पड़ते दौड़े आते। सूखी खेती, उजड़े उपवन, सूने पनघट राह हमारी तकते होते। झूम-झूमकर वह हम सबका स्वागत करता था। गाने गाता, और हवाओं में लहराकर अपना नृत्य दिखाता था। अँधियारे में उसकी डालों पर बैठ सुकून से हम बातें दो-चार किया करते थे। अब हमको कौन जगाएगा? कौन हमें संदेशे भेजेगा? कौन जली-तपी धरती का दुख देख पसीजेगा? हम भी किससे बतियाने आएँगे? कौन हमें ज़िद कर-करके रोकेगा? कौन भला...कौन भला...?

 

सब एक साथ   : जब भी कटता एक पेड़ है तो केवल पेड़ नहीं कटता, कटते कई-कई जीवन हैं। रुकती कई-कई साँसें हैं। थमती कई-कई धड़कन हैं। देख सको तो देखो थमकर। सोच सको तो सोचो रुककर। यह हँसी-खेल होगा तुम सबका। पेड़ काटकर तुम्हें कोई छोटी-सी, हाँ बस छोटी-सी सुविधा मिलती होगी। पर अपने तो जीवन की रफ्तार ठहर जाती है। सारी ख़ुशियाँ, घर-बार हमारा छिन जाता है। अब हम भला कहाँ जाएँगे? कभी ठहरकर सोचा तुमने? अगर नहीं सोचा तो सोचो। वर्ना इक दिन ऐसा भी आएगा। जब तुम हमको पाने को चिल्लाओगे और हम सभी सपनों से भी दूर किसी दुनिया में, सदा-सदा के लिए चले जाएँगे। आज अगर हम    नहीं रहे, तो फिर कल तुम भी कैसे रह पाओगे?

 

(मंच पर उपस्थित सभी पात्र फ्रीज हो जाते हैं। नेपथ्य से चेतावनी भरी आवाज़ में दृढ़ स्वर गूँजता है-)

पेड़ हैं तो साँसें हैं,

पेड़ हैं तो ख़ुशबू है,

पेड़ हैं तो ख़ुशियाँ हैं,

पेड़ हैं तो दुनिया है।

पेड़ हैं तो रंग हैं

पेड़ हैं तो बादल हैं।

पेड़ हैं तो संगीत है

कोयल की कूक और

बुलबुल का गीत है

पेड़ है तो धड़कन है

पेड़ हैं तो जीवन है

पेड़ सहेजो, पेड़ लगाओ,

धरती पर जीवन बचाओ।

 

(पर्दा गिरता है)

Photo Credit : Google

2 comments:

  1. आपकी लेखनी का कोई जवाब नहीं है लाजवाब आप जैसे लेखक लेखन को एक नई दिशा एक नई दशा प्रदान करते हुए समाज को प्रगतिशील बनाने में अहम भूमिका अदा करते हैं।

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  2. बहुत सुंदर ,पद्य के समावेश से कहानी अति रोचक व प्रभावशाली हो गई है।

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