Tuesday 7 May 2019

पहलवान का बकरा


सहन में पैर रखते ही मियाँ मुनक्का को जैसे चक्कर आ गया। अभी-अभी तिपाई पर चार मोटी-ताज़ी मूलियाँ रखी थीं। पर अब सिवा डंठलों के वहाँ कुछ भी नहीं दिख रहा था। उस पर तुर्रा यह कि पास में पहलवान पिस्ता का बकरा बेफिक्री से जुगाली किए जा रहा था।
मियाँ मुनक्का का दिल बैठ गया। सब्ज़ीवाले को पटाकर बड़ी मुश्किल से पाँच रुपए की चार मूलियाँ ली थीं। सोचा था मूली के पराठे बनाकर कटोरा भर चाय के साथ खाएँगे। लेकिन बेरहम बकरा मूली के साथ उनके मंसूबों को भी चबा गया। ऊपर से ढिठाई ऐसी कि आहट पाकर न तो हड़बड़ाया, न डरा। बल्कि पूरे आत्मविश्वास के साथ इक्का-दुक्का बची डंठलों पर मुँह मार रहा था।

यह चोरी नहीं सीना ज़ोरी थी। मियाँ मुनक्का का ख़ून खौल गया। आस-पास कुछ न मिला तो जूती उतार ली और बकरे की पीठ पर जमाने दौड़े। लेकिन मोटे-ताज़े बकरे में जाने कहाँ की फुर्ती समाई कि उछलकर किनारे हट गया। जूती कनस्तर से लगी और बचा-खुचा आटा ज़मीन पर बिखर गया। मियाँ मुनक्का का पारा सातवें आसमान पर जा पहुँचा। उधार के आटे की बर्बादी देखकर दिमाग़ सनसना गया। ऊपर से बकरे की ढिठाई ऐसी कि भागने के बजाय गिरे हुए आटे पर मुँह मारने लगा। मियाँ मुनक्का ने दूसरी जूती उतारी और फेंककर दे मारी। इस बार भी बकरे ने ऐसी चौकड़ी भरी कि जूती हैंडपंप के पास हो रही किचकिच में जा गिरी। अब मियाँ मुनक्का निहत्थे थे। पर उन्होंने आत्मविश्वास नहीं खोया। आस्तीनें चढ़ाईं, पाँयचे संभाले और बकरे के पीछे चौकड़ी भरने लगे। कभी बकरा आगे तो कभी मियाँ मुनक्का। आँगन कबड्डी का मैदान बन गया। मियाँ मुनक्का अगर जुनूनी खिलाड़ी थे तो बकरा भी कम न था।
भागते-भागते मियाँ मुनक्का एकाएक फिसलकर चारों ख़ाने चित हो गए और कमर पकड़कर हाय-हायकरने लगे। बकरे ने विरोधी को धराशायी होते देखा तो बेफिक्री से बाहर की ओर बढ़ चला। लेकिन मियाँ मुनक्का ने भी हार मानना कब सीखा था? साँस भरकर उठे और लपककर बकरे की गर्दन धर दबोची। लेकिन पहलवान का बकरा भी कम पहलवान नहीं था। मियाँ मुनक्का को खींचते हुए बाहर ले आया। बाहर आते ही मक्कारी सधी आवाज़ में ऐसा चिल्लाया जैसे कसाई ने गर्दन पर छुरा रख दिया हो। फिर वही हुआ जो होना था। बकरे की दर्द भरी आवाज़ सुनकर पहलवान भागा आया।
अपने प्यारे बकरे की गर्दन मियाँ मुनक्का के हाथ में देखकर उसका पारा सातवें आसमान पर जा पहुँचा। गु़स्से में ऐसी दहाड़ मारी कि मियाँ मुनक्का सिटपिटा गए। बकरा भी पल भर को मिमियाना छोड़कर ख़ामोश हो गया।
‘‘मेरे बकरे को छूने की हिम्मत कैसे हुई?’’
मियाँ मुनक्का अपनी मूलियों की बर्बादी भूले नहीं थे। दाँत किटकिटाते हुए बोले, ‘‘आज कुछ भी हो, इसे बिना सबक़ सिखाए छोड़ूँगा नहीं।’’
पहलवान भला इतनी बात कहाँ सहन कर सकता था? उसने गर्दन पकड़कर उन्हें हवा में टाँग लिया। बेचारे मियाँ मुनक्का हाथ-पैर फड़फड़ाते हुए गों-गोंकरने लगे। लोगों के कहने-सुनने पर पहलवान ने उन्हें छोड़ा तो खाँसते हुए मुश्किल से मिनमिनाए ‘‘इतना ही ख़्याल है तो बाँधकर क्यों नहीं रखते?’’
‘‘मेरी मर्ज़ी, चाहे जैसे रखूँ।’’ पहलवान आँखें तरेरते हुए बोला।
‘‘तो क्या इस तरह दूसरों के घर में घुसकर नुकसान करता फिरेगा?’’ मियाँ मुनक्का चीख़े।
‘‘तुम्हारी रसोई में कौन से छप्पन भोग रखे हैं जो मेरा बकरा मुँह मारने जाएगा?’’
मियाँ मुनक्का चुप रह गए। मूलियों के नुकसान की बात छेड़कर अपनी हँसी नहीं उड़वाना चाहते थे। ग़ुस्सा पीकर वह घर के अंदर चले गए।
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पहलवान के बकरे से मियाँ मुनक्का ही नहीं पूरा मुहल्ला परेशान था। दिन भर छुट्टा घूमनेवाला बकरा जिस किसी का दरवाज़ा खुला देखता बिन बुलाए मेहमान की तरह जा धमकता। जब तक हो-हो’ ‘चल-चलमचती तब तक नुकसान करके भाग निकलता। चिरौंजी बनिए की दूकान में तो वह रोज़ ही अपनी हाजि़री दर्ज करा आता था।
एक बार तो वह लाला बादाम की ड्योढ़ी पर जा धमका। उनका दरवाज़ा उढ़का हुआ था। अंदर घुसने की कोशिश की तो कुंडी टनटनाई। लाला ने सोचा मुनीम काजू होंगे। बोले, ‘‘आ जाओ, मुनीम जी, दरवाज़ा खुला है।’’ और कोई होता तो आवाज़ पाकर ठिठक गया होता, पर ढीठ बकरा सींगों से दरवाज़ा ठेलकर अंदर घुस आया। लाला मोटा चश्मा चढ़ाए हिसाब-किताब में मगन थे। उन्होंने ध्यान नहीं दिया। पर जब चौकी पर रखा गिलास गिरकर टनमनाया तो पलटे। देखा तो बकरा एक बही मुँह में दबाए चबाने की भरपूर कोशिश में लगा था। लाला घबरा गए। छड़ी उठाई और हट-हट’ ‘छोड़-छोड़कहते हुए पीछे लपके। बकरा बही लिए-लिए बाहर निकल भागा। आगे-आगे बकरा, पीछे-पीछे लाला। मुहल्ले की गलियों में मैराथन शुरू हो गई। तमाशाई इकट्ठा हो गए और हो-हल्ला होने लगा। पहलवान को ख़बर लगी तो वह भी रेस में शामिल हो गया। बकरे के पीछे लाला, लाला के पीछे पहलवान। भाग-दौड़ में बही बकरे के मुँह से छूटकर गिर गई। पहलवान लाला पर पिल पड़ा कि तुम झूठमूठ मेरे बकरे के पीछे पड़े हो। लाला पहलवान के आगे क्या बोलते? साँस ऐसी फूल रही थी कि कुछ भी बोलना मुश्किल हो रहा था। पहलवान ख़ूब चिल्लाने-दहाड़ने के बाद बकरे को दुलराता हुआ ले गया। लाला बड़ी देर बाद साँसें क़ाबू करते, कमर पकड़े धोती घिसटाते हुए हाँफते-काँपते घर पहुँचे।
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मियाँ मुनक्का झूले जैसी चारपाई में धँसे अंदर ही अंदर कसमसा रहे थे। मूलियाँ गँवाई, कमर में चोट आई, अचकन के दो बटन टूटे और मुहल्लेवालों के सामने बेइज़्ज़ती हुई सो अलग। उनका ग़ुस्सा कई गुना होकर निकल पड़ने को उफन रहा था। न लेटे चैन आ रहा था, न बैठे। पहलवान का तो ख़ैर वह कुछ बिगाड़ नहीं सकते थे, पर बकरे का ख़्याल आते ही दिमाग़ सनसना उठता। उन्होंने मन ही मन ठान लिया कि देखें पहलवान कब तक उसके पीछे-पीछे फिरता है। आज नहीं तो कल इस कमबख़्त बकरे को सबक़ सिखाकर ही रहेंगे।
मियाँ मुनक्का बड़ी देर तक दिमाग़ दौड़ाते रहे पर बकरे को सबक़ सिखाने का उपाय नहीं सूझा। एकाएक उनकी निगाह आँगन में लगे जामुन पर गई। दिमाग़ में अचानक बिजली-सी कौंधी।
उन्होंने अचकन उतारी और पेड़ पर चढ़ गए। चाहते तो लग्गी के सहारे भी पत्तियाँ तोड़ सकते थे पर ऊपर की लाल-लाल कोंपलें खोटना चाहते थे ताकि बकरा उनके लालच से बच न सके और पीछे-पीछे भागा चला आए। इसी बहाने पुराने कि़ले के खंडहरों तक ले जाकर धन्नू अहीर  के मरखने बैलों के बीच छोड़ दें। फिर पता चले बच्चू को।
मियाँ मुनक्का ने एक थैले में बहुत सारी पत्तियाँ भरीं और चादर ओढ़कर चुपके-चुपके बाहर निकले। दोपहर का वक़्त था। लोग-बाग अपने कामों में लगे थे या ख़ाली होकर ऊँघ रहे थे। संयोग की बात कि बकरा सामनेवाले मकान के चबूतरे पर उनींदा बैठा जुगाली करता दिख गया। मियाँ मुनक्का उसके सामने से पत्तियाँ गिराते हुए इस तरह निकले कि उसकी नज़र पड़ जाए। बकरे ने जब जामुन की लाल-लाल रसदार कसैले स्वादवाली कोपलें देखीं तो बेचैन हो गया। मियाँ मुनक्का आगे-आगे और बकरा पीछे-पीछे। मियाँ मुनक्का अपनी योजना सफल होते देख फूले न समा रहे थे। उन्होंने अपनी चाल तेज़ कर दी। मुहल्ले से बाहर आते-आते उनका दिल बल्लियों उछलने लगा। सामने ही पुराने कि़ले का खंडहर दिखाई दे रहा था। बस, अब मंजि़ल थोड़ी ही दूर थी। पर वह जैसे ही बरगद के सामने से होकर आगे बढ़े कि उन्हें लगा पीछे से आ रहे बकरे की पदचाप भारी हो गई है, जैसे कोई भारी-भरकम जानवर हो। पलटकर देखा तो होश फाख़्ता हो गए। बकरे का तो कहीं अता-पता न था, अब उसकी जगह एक भारी-भरकम साँड चला आ रहा था। उसके नथुने फड़क रहे थे। ऐसा लग रहा था कि दो-दो पत्तियाँ चबाने से उसकी भूख और बढ़ रही थी, जिससे उसका ग़ुस्सा भड़क रहा था। मियाँ मुनक्का ने घबराकर थैला फेंका और ऐसा भागे कि ओलिंपिक में दौड़े होते तो गोल्ड मेडल मिल गया होता।
अपनी योजना नाकामयाब होते देख मियाँ मुनक्का को ऐसी ठेस लगी कि दो-तीन दिन उनसे कुछ सोचा ही न गया। चुपचाप घर बंद करके पड़े रहे।
एक दिन वह हकीम साहब के पास पहुँचे। बदन टूट रहा था। कुछ-कुछ बुख़ार के लक्षण लग रहे थे। सोचा दवा ले लें। हकीम साहब आराम कुर्सी पर बैठे हुक्का खींच रहे थे। कहने लगे, ‘‘आजकल मौसम बदल रहा है। ज़रा-सी लापरवाही ज़ुकाम-बुख़ार को दावत दे रही है। सुबह से कई लोग आ चुके हैं। इसलिए मैंने पहले से दवा की पुडि़याँ बना रखी हैं। तिपाई पर रखी है एक उठा लो।’’
मियाँ मुनक्का ने तिपाई के दूसरी ओर अलग से रखी एक पुडि़या उठा ली। हकीम साहब ने देखा तो वहीं से चीख़े, ‘‘अरे, अरे, वह मत खा लेना गज़ब हो जाएगा।’’
‘‘क्यों इसमें ऐसा क्या है?’’ मियाँ मुनक्का हैरत से बोले।
‘‘अरे इसे वहाँ से हटाना भूल गया। यह तो होश गुम करने की दवा है। चुटकी भर भी फाँक ली तो चार दिन तक होश नहीं रहेगा।’’
मियाँ मुनक्का के दिमाग़ में आइडिया कौंध गया। उन्होंने हकीम साहब की निगाह बचाकर पुडि़या जेब के हवाले की और दवाख़ाने से निकल लिए।
घर आते ही कनस्तर उलटकर आटा निकाला और अच्छी तरह से पुडि़या मिला दी। आटे की चार-पाँच ढेरियाँ बनाईं और दरवाज़े के सामने थोड़ी-थोड़ी दूर पर रख दीं। काम ख़त्म करके इत्मीनान की साँस ली और चारपाई में जाकर धँस गए।
थोड़ी देर बाद लोगों का शोर सुनकर नींद खुली तो बाहर भागे। बाहर का दृश्य देखकर मियाँ मुनक्का की साँसें अटकी रह गईं। दरवाज़े के सामने दो कुत्ते, चार मुर्गियाँ, एक बतख, दो कौए और एक गाय सोए हुए पड़े थे। और बकरा सामने के चबूतरे पर बैठा आराम से जुगाली कर रहा था। मियाँ मुनक्का ने सिर पीट लिया।

तभी मिर्ज़ा चिलगोज़ा उधर से निकल पड़े। उनका बुझा चेहरा देखा तो पूछने लगे।
मियाँ मुनक्का अपना दुखड़ा रोते हुए बोले, ‘‘क्या करूँ। कुछ समझ में नहीं आता। लगता है इस मुसीबत से छुटकारे का कोई उपाय नहीं?’’
‘‘है क्यों नहीं,’’ मिर्ज़ा चिलगोज़ा तपाक से बोले, ‘‘तुम कोई ऐसा जानवर पाल लो जिससे बकरा डरता हो, जैसे कुत्ता। फिर बकरा तो क्या, पहलवान भी क़दम रखते घबराएगा।’’
मियाँ मुनक्का को बात जँच गई। फौरन बाहर निकले और गली के एक मरियल कुत्ते को बहला-फुसलाकर खींच लाए। भरपेट खिलाया-पिलाया। तन की गंदगी साफ की। हाथ-पैरों की मालिश की। कुत्ता भी अपना सत्कार पाकर निहाल हो गया। मगर जब रात हुई तो उसने भौंक-भौंककर सोना मुश्किल कर दिया। पूरी रात आँगन में इधर से उधर दौड़ता रहा। गली के कुत्तों के सुर में सुर मिलाता रहा। दालान में रखा सामान गिराता रहा। पर मियाँ मुनक्का सब सह गए।
लेकिन सुबह उनका दिल तब टूट गया जब उन्होंने देखा कि कुत्ते के लिए रखा गया खाना बकरा खा रहा है और कुत्ता दोनों पैरों के बीच दुम दबाए मिमियाता हुआ खड़ा है।
मियाँ मुनक्का दुखी होकर अंदर गए। थैला उठाया और घर से निकल पड़े। रास्ते में टहलते हुए मिर्ज़ा चिलगोज़ा मिले। पूछने लगे, ‘‘अमाँ, सुबह-सुबह कहाँ के सफर पर निकल पड़े?’’
‘‘जा रहा हूँ रामपुर। चचा के पास।’’
‘‘--- सब ख़ैरियत तो है न?’’
‘‘क्या ख़ाक़ ख़ैरियत है?’’ मियाँ मुनक्का चिढ़कर बोले, ‘‘पहलवान के बकरे ने जीना हराम कर दिया है। अब वापस तभी लौटूँगा। जब ये बकरा यहाँ से दफा हो जाएगा।’’
कहकर मियाँ मुनक्का ने क़दम बढ़ा दिए।
‘‘अरे, सुनो तो सही,’’ पीछे से मिर्ज़ा चिलगोज़ा चिल्लाए, ‘‘तुम्हें पता भी है, आज ही पहलवान ने बकरे को बेच दिया---’’
मियाँ मुनक्का ने सुना तो उछल पड़े। बोले, ‘‘यार, मेरे, क्या ख़बर सुनाई है। दिल बाग़-बाग़ हो उठा है। मारे ख़ुशी के समझ में नहीं आ रहा है कि नाचूँ या गाऊँ। सच कह रहा हूँ चिलगोज़ा आज मन ख़ुशी से हवाओं में उड़ रहा है। तुम्हें नहीं पता मेरी कितनी बड़ी मुसीबत हल हो गई है। चलो, इसी बात पर मिठाई खिलाता हूँ।’’
मियाँ मुनक्का आगे बढ़ चले, पर मिर्ज़ा चिलगोज़ा पीछे खड़े रह गए।
‘‘अमाँ क्या हो गया? आज पहली बार किसी को मिठाई खिलाने का मन कर रहा है। और तुम हो कि जमे हुए हो?’’ मियाँ मुनक्का बोले।
‘‘दरअसल---’’ मिर्ज़ा चिलगोज़ा बोले, ‘‘---तुमने पूरी बात सुनी नहीं। बकरा तो उसने बेच दिया है पर उसकी जगह दो मरखने बैल ले आया है।’’
यह सुनने के बाद मियाँ मुनक्का का क्या हुआ होगा, यह बताने की ज़रूरत है क्या?


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